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तेरहवाँ शतक : उद्देशक-६
३२९ राज्य-अप्राप्तिनिमित्त में वैरानुबद्ध अभीचिकुमार का वीतिभय नगर छोड़कर चम्पानगरी में निवास
३२. तए णं तस्स अभीयिस्स कुमारस्स अन्नदा कदायि पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था—'एवं खलु अहं उदायणस्स पुत्ते पभावतीए देवीय अत्तए, तए णं से उदायणे राया ममं अवहाय नियगं भागिणेजं केसिकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ जाव पव्वइए'। इमेण एतारूवेणं महता अप्पत्तिएणं मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे अंतेपुरपरियालसंपरिवुडे संभडमत्तोवगरणमयाए वीतिभयाओ नगराओ निग्गच्छति, नि० २ पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे गामाणुगाम दुइज्जमाणे जेणेव चंपा नगरी जेणेव कूणिए राया तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवा० २ कूणियं रायं उवसंपजित्ताणं विहरइ। इत्थ वि णं से विउलभोगसमितिसम्मन्नागए यावि होत्था।
। [३२] तत्पश्चात् (उदायन राजा के प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद) किसी दिन रात्रि के पिछले पहर में कुटुम्ब-जागरण करते हुए (उदायनपुत्र) अभीचि कुमार के मन में इस प्रकार का विचार यावत् उत्पन्न हुआ'मैं उदायन राजा का (औरस) पुत्र और प्रभावती देवी का आत्मज हूँ। फिर भी (मेरे पिता) उदायन राजा ने मुझे छोड़कर अपने भानजे केशीकुमार को राजसिंहासन पर स्थापित कर श्रमण भगवान् महावीर के पास यावत् प्रव्रज्या ग्रहण की है।' इस प्रकार के इस महान् अप्रतीति-(अप्रीति)-रूप मनो-मानसिक (आन्तरिक) दुःख से अभिभूत (पीडित) बना हुआ अभीचि कुमार अपने अन्तःपुर-परिवार-सहित अपने भण्डमात्रोपकरण (समस्त भाजन, शय्यादि सामग्री) को लेकर वीतिभय नगर से निकल गया और अनुक्रम से गमन करता और ग्रामानुग्राम चलता हुआ (एक दिन) चम्पा नगरी में कूणिक राजा के पास पहुँचा। कूणिक राजा से मिलकर उसका आश्रय ग्रहण करके (वहाँ) रहने लगा। यहाँ भी वह विपुल भोग-सामग्री से सम्पन्न हो गया।
विवेचन उदायन के प्रति वैरानुबन्ध-उदायन राजा द्वारा अपने पुत्र को छोड़कर भानजे को राज्याभिषिक्त करके प्रव्रजित होने के कारण अभीचि कुमार उदायन राजा के अपने प्रति कल्याणकारी शुभभावों को न समझ कर गलतफहमी से उनके प्रति रोषवश अपने अन्त:पुर एवं समस्त साधन-सामग्री को लेकर वहाँ से कूच करके चम्पापुरी में कूणिक राजा के पास पहुँचा और उसके आश्रित रहने लगा। इस प्रकार अभीचि कुमार की वैरानुबन्धिनी मनोवृति का प्रस्तुत सूत्र में निरूपण किया गया है।
कठिन शब्दार्थ-अवहाय–छोड़ कर। अप्पत्तिएण-अप्रतीतिकर या अप्रीतिजन्य। मणोमाणसिएणं-दुक्खेणं—मन के आन्तरिक दुःख से। अंतेपुर-परियालसंपरिवुडे–अन्त:पुर-परिवार से परिवृत्त (युक्त) हो कर । सभंड-मत्तोवगरणमायाए–भाण्ड मात्र (बर्तन) सहित उपकरण (समस्त साधन सामग्री) लेकर। उवसंपज्जित्ताणं—अधीनता (आश्रय) स्वीकार कर । विउल-भोग समिति समनागए–प्रचुर भोग सामग्री से सम्पन्न।
१. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २२४४
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६२१