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तेरहवां शतक : उद्देशक-६
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'धन्य हैं वे ग्राम, आकर (खान), नगर, खेड़, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, संवाह एवं सन्निवेश; जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विचरण करते हैं ! धन्य हैं वे राजा, श्रेष्ठी, तलवर यावत् सार्थवाह-प्रभृति जन, जो श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं, यावत् उनकी पर्युपसना करते हैं। यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वी (अनुक्रम) से विचरण करते हुए एवं एक ग्राम से दूसरे ग्राम यावत् विहार करते हुए यहाँ पधारें, यहाँ उनका समवसरण हो और यहीं वीतिभय नगर के बाहर मृगवन नामक उद्यान में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए यावत् विचरण करें, तो मैं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार करूं, यावत् उनकी पर्युपासना करूं।
विवेचन—प्रस्तुत सूत्रों में उदायन राजा की अपनी पौषधशाला में धर्मजागरणा करते हुए श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार यावत् उनकी पर्युपासना करने का जो संकल्प हुआ, उसका वर्णन है। ___ कठिन शब्दार्थ—पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि : तीन अर्थ—(१.) पूर्वरात्रि व्यतीत होने पर पिछली रात्रि के समय में, (२) रात्रि के पहले या पिछले पहर में , (३) पूर्वरात्रि और अपररात्रि के मध्य में। अयमेयारूवे—इस प्रकार का, (ऐसा)।अज्झथिए—अध्यवसाय-संकल्प।समुप्पजित्था-समुत्पन्न हुआ। अहापडिरूवे ओग्गहं ओगिण्हित्ता-अपने अनुरूप अवग्रह (निवास के योग्य स्थान की याचना करके, उस) को ग्रहण करके। भगवान् का वीतिभयनगर में पदार्पण, उदायन द्वारा प्रव्रज्याग्रहण का संकल्प
१९. तए णं समणे भगवं महावीरे उदायणस्स रण्णो अयमेयारूवं अज्झत्थियं जाव समुप्पन्नं विजाणित्ता चंपाओ नगरीओ पुण्णभद्दाओ चेतियाओ पडिनिक्खमति, प० २ त्ता पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे गामाणु० जाव विहरमाणे जेणेव सिंधुसोवीरा जणपदा, जेणेव वीतीभये नगरे, जेणेव मियवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छति, उवा० २ जाव विहरति।
[१९] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी, उदायन राजा के इस प्रकार के समुत्पन्न हुए अध्यवसाय यावत् संकल्प को जान कर चम्पा नगरी के पूर्णभद्र नामक चैत्य से निकले और क्रमशः विचरण करते हुए, ग्रामानुग्राम यावत् विहार करते हुए जहाँ सिन्धु-सौवीर जनपद था, जहाँ वीतिभय नगर था और उसमें मृगवन नामक उद्यान था, वहाँ पधारे यावत् विचरने लगे।
२०. तए णं वीतिभय नगरे सिंघाडग जाव परिसा पज्जुवासइ।
[२०] वीतिभय नगर में श्रृंगाटक (तिराहे) आदि मार्गों में (भगवान् के पधारने की चर्चा होने लगी) यावत् परिषद् (भगवान् की सेवा में पहुँच कर) पर्युपासना करने लगी।
२१. तए णं से उदायणे राया इमीसे कहाए लद्धटे हट्ठतुट्ठ० कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति, को० स० २
१. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २२३५
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६२१