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तेरहवाँ शतक : उद्देशक-४
गोयमा ! जीवsत्थिकाए णं जीवे अणंताणं आभिणिबोहियनाणपज्जवाणं अणंताणं सुयनाणपज्जवाणं एवं जहा बितियसए अत्थिकायुद्देसए (स० २०१० सु० ९ [ २ ] ) जाव उवयोगं गच्छति। उवयोगलक्खणे णं जीवे ।
[ २७ प्र.] भगवन् ! जीवातिस्काय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ?
[२७ उ.] गौतम ! जीवास्तिकाय के द्वारा जीव अनन्त आभिनिबोधिकज्ञान की पर्यायों को, अनन्त श्रुतज्ञान की पर्यायों को प्राप्त करता है; (इत्यादि सब कथन) द्वितीय शतक के दसवें अस्तिकाय उद्देशक के (सूत्र ९ - २ के) अनुसार; यावत् - वह (ज्ञान - दर्शनरूप) उपयोग को प्राप्त होता है, (यहाँ तक कहना चाहिए।) जीव का लक्षण उपयोग-रूप है ।
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२८. पोग्गलऽत्थिकाए पुच्छा ।
गोयमा ! पोग्गलऽत्थिकाए णं जीवाणं ओरालिय-वेउव्विय- आहारग- तेया- कम्मा-सोतिंदियचक्खिदिय- घाणिंदिय-जिब्भिंदिय- फासिंदिय-मणजोग - वइजोग-कायजोग - आणापाणूणं च गहणं पवत्तति। गहणलक्खणे णं पोग्गलऽत्थिकाए ।
[ २८ प्र.] भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ?
[ २८ उ. ] गौतम ! पुद्गलास्तिकाय से जीवों के औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण, श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय, मनोयोग, वचनयोग, काययोग और श्वास - उच्छ्वास का ग्रहण करने की प्रवृत्ति होती है। पुद्गलास्तिकाय का लक्षण 'ग्रहण' रूप है।
विवेचन — प्रस्तुत छह सूत्रों में लोक के स्वरूप तथा धर्मास्तिकाय आदि पञ्चास्तिकाय की प्रवृत्ति एवं लक्षण, सप्तम प्रवर्त्तनद्वार के द्वारा प्ररूपित किये गये हैं ।
लोक, अस्तिकाय और प्रकार — प्रस्तुत सूत्र में लोक पंचास्तिकाय रूप बताया है। अस्ति का अर्थ है प्रदेश और काय का अर्थ है समूह, अर्थात् — प्रदेशों के समूह वाले द्रव्यों को 'अस्तिकाय' कहते हैं । वे पाँच हैं— धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और पुद्गल । कई दार्शनिक ब्रह्ममय लोक कहते हैं, उनका निराकरण इस सूत्र से हो जाता है। इनमें से सिवाय आकाशतत्त्व के अलोक में और कुछ नहीं है ।
धर्मास्तिकाय आदि का स्वरूप— धर्मास्तिकाय— गति - परिणाम वाले जीव और पुद्गलों को गमनादि चलक्रिया में सहायक । यथा— मछली के गमन में जल सहायक होता है ।
अधर्मास्तिकाय — स्थिति - परिणाम वाले जीव और पुद्गलों की स्थिति आदि अवस्थानक्रिया में सहायक । यथा विश्रामार्थ ठहरने वाले पथिकों के लिए छायादार वृक्ष ।
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६०८
(ख) भगवती ( हिन्दीविवेचन ) भा. ५, पृ. २१९१