________________
२८०
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [१५ उ.] गौतम ! इस जम्बूद्वीप के मन्दराचल (मेरुपर्वत) के बहुसम मध्यभाग (ठीक बीचोंबीच) में इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर वाले और निचले दोनों क्षुद्रप्रस्तटों (छोटे पाथड़ों) में, तिर्यग्लोग के मध्य भाग रूप आठ रुचक-प्रदेश कहे गए हैं. (वहीं तिर्यग्लोक की लम्बाई का मध्यभाग है।) उन (रुचक प्रदेशों ) में से ये दश दिशाएँ निकली हैं । यथा—पूर्वदिशा, पूर्व-दक्षिण दिशा इत्यादि, (शेष समग्र वर्णन) दशवें शतक (के प्रथम उद्देशक के सूत्र ६-७) के अनुसार, दिशाओं के दश नाम ये हैं; (यहाँ तक) कहना चाहिए।
विवेचन—प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. १२ से १५ तक) में लोक, ऊर्ध्व अधो एवं तिर्यक् लोक की लम्बाई के मध्यभाग का निरूपण लोक-मध्यद्वार के सन्दर्भ में किया गया है।
लोक एवं ऊर्ध्व, अधो, तिर्यक्लोक के मध्यभाग का निरूपण-लोक की कुल लम्बाई १४ रज्जू परिमित है। उसकी कुल लम्बाई का मध्यभाग रत्नप्रभापृथ्वी के आकाशखण्ड के असंख्यातवें भाग का उल्लंघन करने के बाद है। तिर्यक्लोक की लम्बाई १८०० योजन है। तिर्यक्लोक के मध्य में जम्बूद्वीप है। उसी जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत के बहुमध्य देशभाग (बिल्कुल मध्य) में, रत्नप्रभापृथ्वी के समतल भूमिभाग पर आठ रुचक प्रदेश हैं, जो गोस्तन के आकार के हैं और चार ऊपर की ओर उठे हुए हैं तथा चार नीचे की ओर हैं। इन्ही रुचक प्रदेशों की अपेक्षा से सभी दिशाओं और विदिशाओं का ज्ञान होता है। इन रुचक प्रदेशों के ९०० योजन ऊपर और ९०० योजन नीचे तक तिर्यक्लोक (मध्यलोक) है। तिर्यक्लोक के नीचे अधोलोक हैं और ऊपर ऊर्ध्वलोक है। ऊर्ध्वलोक की लम्बाई कुछ कम ७ रज्जू परिमाण है, जबकि अधोलोक की लम्बाई कुछ अधिक सात रज्जू परिमाण है। रुचक प्रदेशों के नीचे असंख्यात करोड़ योजन जाने पर रत्नप्रभापृथ्वी में चौदह रज्जू रूप लोक का मध्यभाग आता है। यहाँ से ऊपर और नीचे लोक का परिमाण ठीक सात-सात रज्जू रह जाता है। चौथी और पांचवीं नरकपृथ्वी के मध्य के जो अवकाशान्तर (आकाशखण्ड) हैं, उनके सातिरेक (कुछ अधिक) आधे भाग का उल्लंघन करने पर अधोलोक का मध्यभाग है। सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक से ऊपर और पांचवें ब्रह्मलोककल्प के नीचे रिष्ट नामक तृतीय प्रतर में ऊर्ध्वलोक का मध्य भाग है।'
दश दिशाओं का उद्गम, गुणनिष्पन्न नाम–लोक का आकार वज्रमय है। इस रत्नप्रभापृथ्वी के रत्नकाण्ड में सबसे छोटे दो प्रतर हैं। उनके दोनों लघुतम प्रतरों में से ऊपर के प्रतर से लोक की ऊर्ध्वमुखी वृद्धि होती है और नीचे के प्रतर से लोक की अधोमुखी वृद्धि होती है। यही तिर्यक्लोक का मध्यभाग है, जहाँ ८ रुचक प्रदेश बताए हैं। इन्हीं से १० दिशाएँ निकली हैं—(१) पूर्व, (२) दक्षिण, (३) पश्चिम, (४) उत्तर, ये चार दिशाएँ मुख्य हैं तथा (५) अग्निकोण, (६) नैऋत्यकोण, (७) वायव्यकोण और (८) ईशानकोण, (९) ऊर्ध्वदिशा और (१०) अधोदिशा।
पूर्व महाविदेह की ओर पूर्वदिशा है, पश्चिम महाविदेह की ओर पश्चिम दिशा है, भरतक्षेत्र की ओर दक्षिणदिशा है, और ऐरवतक्षेत्र की ओर उत्तरदिशा है। पूर्व और दक्षिण के मध्य की 'अग्निकोण', दक्षिण और
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६०७
(ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २१८३-२१८४