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तेरहवां शतक : उद्देशक-१
२६१ यावत्—इस कारण से हे गौतम ! उत्पन्न हो जाते हैं, यहाँ तक कहना चाहिए।
हे भगवन् ! इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं।
विवेचन—प्रस्तुत तीनों सूत्रों (२८ से ३० तक) में एक लेश्या वाले जीव का प्रशस्त या अप्रशस्त दूसरी लेश्या के रूप में परिणत होकर उस लेश्या वाले नारकों में उत्पत्ति का सकारण प्रतिपादन किया गया है।
अप्रशस्त-प्रशस्त लेश्या-परिवर्त्तना में कारण : संक्लिश्यमानता-विशुद्धयमानता—ही है। जब प्रशस्त लेश्यास्थान अविशुद्धि को प्राप्त होते हैं, तब वे संक्लिश्यमान तथा अप्रशस्त लेश्यास्थान जब विशुद्धि को प्राप्त होते हैं, तब वे विशुद्ध्यमान कहलाते हैं। इसलिए प्रशस्त-अप्रशस्त लेश्याओं की प्राप्ति में संक्लिश्यमानता-विशुद्ध्यमानता कारण समझनी चाहिए।
॥ तेरहवां शतक : प्रथम उद्देशक-समाप्त॥
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१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६००-६०१
(ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पत्र २१५८