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________________ तेरहवाँ शतक : उद्देशक-१ २४९ अचक्षुदर्शन कहते हैं। ऐसा अचक्षुदर्शन उत्पत्ति के समय भी होता है, किन्तु चक्षुदर्शनी की उत्पत्ति के निषेध का कारण यह है कि इन्द्रियों का त्याग होने पर ही वहाँ उत्पत्ति होती है। स्त्रीवेदी आदि जीवों की उत्पत्तिनिषेध का कारण-नरक में स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी उत्पन्न नहीं होते है, क्योंकि उनके भवप्रत्यय नपुंसकवेद होता है। उत्पत्ति के समय नारक श्रोत्रादि इन्द्रियों के उपयोग वाले नहीं होते, क्योंकि उस समय इन्द्रियाँ होती ही नहीं । सामान्य (चेतनारूप) उपयोग इन्द्रियों के अभाव में भी रह सकता है। इसलिए कहा गया है—'नो-इन्द्रियोपयुक्त उत्पन्न होते हैं। उत्पत्ति-समय में अपर्याप्त होने से मन और वचन दोनों का अभाव होता है। इसलिए कहा गया है—रत्नप्रभानारकावास में मनोयोगी और वचनयोगी जीव उत्पन्न नहीं होते। जीवों के काययोग तो सदैव रहता है। रत्नप्रभा के संख्यातविस्तृत नारकावासों से उद्वर्त्तना सम्बन्धी उनचालीस प्रश्नोत्तर ७. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं केवतिया नेरइया उव्वटुंति ? १, केवतिया काउलेस्सा उव्वटुंति ? २, जाव केवतिया अणागारोवउत्ता उव्वळंति ? ३९। गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेस संखेज्जवित्थडेसु नरएसु एगसमयेणं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा नेरइया उव्वटुंति १। जहनेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा काउलेस्सा उव्वदि॒ति २। एवं जाव सण्णी ३-४-५। असण्णी ण उव्वद्वृति ६। जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेजा भवसिद्धीया उव्वटुंति ७। एवं जाव सुयअन्नाणी ८-१३। विभंगनाणी न उव्वद॒ति १४। चक्खुदंसणी ण उव्वद॒ति १५। जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा अचक्खुदंसणी उव्वटुंति १६। एवं जाव लोभकसायी १७-२८ । सोतिंदियोवउत्ता ण उव्वटुंति २९ । एवं जाव फासिंदियोवउत्ता न उव्वद॒ति ३०-३३। जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेजा नोइंदियोवउत्ता उव्वटुंति ३४। मणजोगी न उव्वटुंति ३५ । एवं वइजोगी वि ३६ । जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा कायजोगी उव्वटुंति ३७। एवं सागरोवउत्ता ३८, अणागारोवउत्ता ३९।। _ [७ प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में से एक समय में (१) कितने नैरयिक उद्वर्त्तते (मरते-निकलते) हैं ? (२) कितने कापोतलेश्यी नैरयिक उद्वर्त्तते हैं ? यावत् (३९) कितने अनाकारोपयुक्त (दर्शनोपयोग वाले) नैरयिक उद्वर्त्तते हैं ? [७ उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकों १. (क) (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५९९ जेसिमवडो पोग्गलपरियट्टो सेसओ उ संसारो। ते सुक्कपक्खिया खलु अहिगे पुण कण्हपक्खीया ॥ भगवती, (हिन्दी-विवेचन) भा. ५, पृ. २१४१
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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