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________________ २३४ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र . [२] से केणद्वेणं भंते ! जाव नो आया ति य ? गोयमा ! अप्पणो आदिढे आया, परस्स आदिढे नो आया, तदुभयस्स आदिढे अवत्तव्व आया ति य, नो आया ति य। से तेणढेणं तं चेव जाव नो आया ति य। . [२२-२ प्र.] भगवन् ! इस कथन का क्या कारण है ? [२२-२ उ.] गौतम ! स्व-स्वरूप की दृष्टि से कथन किये जाने पर आत्मरूप है, पर-रूप की दृष्टि से कहे जाने पर नो-आत्मरूप है और उभयरूप की अपेक्षा से अवक्तव्य है। इसी कारण उपर्युक्त रूप से कहा गया है। २३. एवं जाव अच्चुए कप्पे। । [२३] इसी प्रकार अच्युतकल्प (बारहवें देवलोक) तक (के पूर्वोक्त स्वरूप के विषय में) जानना चाहिये। २४. आया भंते ! गेवेजविमाणे, अन्ने गेविजविमाणे ? एवं जहा रयणप्पभा तहेव। [२४ प्र.] भगवन् ! ग्रैवेयकविमान आत्म(सद्)रूप है ? अथवा वह उससे भिन्न (नो-आत्मरूप) है ? [२४ उ.] गौतम ! इसका कथन रत्नप्रभापृथ्वी के समान करना चाहिए। २५. एवं अणुत्तरविमाणा वि। [२५] इसी प्रकार अनुत्तरविमान तक कहना चाहिए। २६. एवं ईसिपब्भारा वि। [२६] इसी प्रकार ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक कहना चाहिए। विवेचन–रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर ईषत्प्राग्भारा तक के आत्म-अनात्म विषयक प्रश्नोत्तरप्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. १९ से २६ तक) में रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक के आत्मरूप और अनात्मरूप के सम्बन्ध चर्चा की गई है। ___ आत्मा-अनात्मा : भावार्थ—प्रस्तुत प्रश्नोत्तरों में आत्मा का अर्थ है- सद्प और अनात्मा (अन्य) का अर्थ है-असद्प। किसी भी वस्तु को एक साथ सद्प और असद्प नहीं कहा जा सकता, वैसी स्थिति में वस्तु 'अवक्तव्य' कहलाती है। रत्नप्रभा आदि पृथ्वी : तीनों रूपों में रत्नप्रभापृथ्वी से ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक स्व-स्वरूप की अपेक्षा से अर्थात्-अपने वर्णादि पर्यायों से—सद् (आत्म) रूप है। पररूप की अर्थात्-परवस्तु की पर्यायों की अपेक्षा से असद् (अनात्म) रूप है, और उभय रूप—स्व-पर-पर्यायों की अपेक्षा से, आत्म (सद्) रूप, और १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५९४
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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