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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र . [२] से केणद्वेणं भंते ! जाव नो आया ति य ?
गोयमा ! अप्पणो आदिढे आया, परस्स आदिढे नो आया, तदुभयस्स आदिढे अवत्तव्व आया ति य, नो आया ति य। से तेणढेणं तं चेव जाव नो आया ति य। . [२२-२ प्र.] भगवन् ! इस कथन का क्या कारण है ?
[२२-२ उ.] गौतम ! स्व-स्वरूप की दृष्टि से कथन किये जाने पर आत्मरूप है, पर-रूप की दृष्टि से कहे जाने पर नो-आत्मरूप है और उभयरूप की अपेक्षा से अवक्तव्य है। इसी कारण उपर्युक्त रूप से कहा गया है।
२३. एवं जाव अच्चुए कप्पे। । [२३] इसी प्रकार अच्युतकल्प (बारहवें देवलोक) तक (के पूर्वोक्त स्वरूप के विषय में) जानना चाहिये।
२४. आया भंते ! गेवेजविमाणे, अन्ने गेविजविमाणे ? एवं जहा रयणप्पभा तहेव। [२४ प्र.] भगवन् ! ग्रैवेयकविमान आत्म(सद्)रूप है ? अथवा वह उससे भिन्न (नो-आत्मरूप) है ? [२४ उ.] गौतम ! इसका कथन रत्नप्रभापृथ्वी के समान करना चाहिए। २५. एवं अणुत्तरविमाणा वि। [२५] इसी प्रकार अनुत्तरविमान तक कहना चाहिए। २६. एवं ईसिपब्भारा वि। [२६] इसी प्रकार ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक कहना चाहिए।
विवेचन–रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर ईषत्प्राग्भारा तक के आत्म-अनात्म विषयक प्रश्नोत्तरप्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. १९ से २६ तक) में रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक के आत्मरूप और अनात्मरूप के सम्बन्ध चर्चा की गई है। ___ आत्मा-अनात्मा : भावार्थ—प्रस्तुत प्रश्नोत्तरों में आत्मा का अर्थ है- सद्प और अनात्मा (अन्य) का अर्थ है-असद्प। किसी भी वस्तु को एक साथ सद्प और असद्प नहीं कहा जा सकता, वैसी स्थिति में वस्तु 'अवक्तव्य' कहलाती है।
रत्नप्रभा आदि पृथ्वी : तीनों रूपों में रत्नप्रभापृथ्वी से ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक स्व-स्वरूप की अपेक्षा से अर्थात्-अपने वर्णादि पर्यायों से—सद् (आत्म) रूप है। पररूप की अर्थात्-परवस्तु की पर्यायों की अपेक्षा से असद् (अनात्म) रूप है, और उभय रूप—स्व-पर-पर्यायों की अपेक्षा से, आत्म (सद्) रूप, और १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५९४