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________________ २३२ व्याख्याप्रज्ञप्तिस्त्र १४. एवं जाव वणस्सइकाइयाणं। . [१४] इसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीवों तक कहना चाहिए। १५. बेइंदिय-तेइंदिय० जाव वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं। . [१५] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि से लेकर यावत् वैमानिक तक के जीवों तक का कथन नैरयिकों के समान (सू. ११ में उक्त के अनुसार) जानना चाहिए। विवेचन—प्रश्न और उनके आशय प्रस्तुत ५ सूत्रों (११ से १५ तक) में नैरयिक से लेकर वैमानिक तक २४ दण्डकों में ज्ञान को लेकर प्रश्न किया गया है। प्रश्न का आशय यह है कि नारकों की आत्मा सम्यग्दर्शन होने से ज्ञानरूप (सम्यग्ज्ञान रूप) है अथवा मिथ्यादर्शन होने से अज्ञानरूप है ? भगवान् ने उत्तर में नैरयिकों की आत्मा को कथंचित् ज्ञानरूप और कथंचित् अज्ञानरूप बताया है, उसका आशय भी वही है। किन्तु उनका ज्ञान (सम्यग्ज्ञान हो या मिथ्याज्ञान) अवश्य ही आत्मरूप है। इसी प्रकार पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक जीवों के विषय में [उनमें नियमित: अज्ञान (मिथ्याज्ञान) होने से] सीधा ही पूछा गया है कि पृथ्वीकायिक आदि (पांच स्थावरों) की आत्मा अज्ञान रूप है, अथवा अज्ञान पृथ्वीकायिकादि से भिन्न है ? उत्तर में भी यही कहा गया है कि उनकी आत्मा अज्ञानरूप है और अज्ञान उनकी आत्मा से भिन्न (अन्य) नहीं है। द्वीन्द्रिय से लेकर आगे वैमानिक देवों तक ज्ञान के विषय में प्रश्नोत्तर नैरयिकों के समान समझना चाहिए। १६. आया भंते ! दंसणे, अन्ने दंसणे ? गोयमा ! आया नियमं दंसणे, दंसणे वि नियमं आया। [१६ प्र.] भगवन् ! आत्मा दर्शनरूप है, या दर्शन उससे भिन्न है ? [१६ उ.] गौतम ! आत्मा अवश्य (नियमतः) दर्शनरूप है और दर्शन भी नियमतः आत्मरूप है। १७. आया भंते ! नेरइयाणं दंसणे अन्ने नेरइयाणं दंसणे ? गोयमा ! आया नेरइयाणं नियमं दंसणे, दंसणे वि से नियमं आया। [१७ प्र.] भगवन् ! नैरयिकों की आत्मा दर्शनरूप है, अथवा नैरयिक जीवों का दर्शन उनसे भिन्न है ? [१७ उ.] गौतम ! नैरयिक जीवों की आत्मा नियमत: दर्शनरूप है, उनका दर्शन भी नियमत: आत्मरूप है। १८. एवं जाव वेमाणियाणं निरंतरं दंडओ। [२८] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक चौवीस दण्डकों (के दर्शन) के विषय में (कहना चाहिए)। विवेचन–'आत्मा दर्शन है, दर्शन आत्मा है'—इसी नियम के अनुसार यहाँ दर्शन के विषय में चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के लिए कथन किया गया है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों में दर्शन सामान्यरूप से अवश्य रहता है। १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५९२ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५९२
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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