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बारहवाँ शतक : उद्देशक-१०
२३१ [१० उ.] गौतम ! आत्मा कदाचित् ज्ञानरूप है, कदाचित् अज्ञानरूप है। (किन्तु) ज्ञान तो नियम से (अवश्य ही) आत्मस्वरूप है।
विवेचन—प्रश्न का आशय आचारांगसूत्र में बताया गया है, 'जे आया से विन्नाणे जे वित्राणे से आया' (जो आत्मा है, वह विज्ञान रूप है, जो विज्ञान है, वह आत्मरूप है), किन्तु यहाँ पूछा गया है कि आत्मा ज्ञानरूप है या अज्ञानरूप ?' और उसके उत्तर में भगवान् ने आत्मा को कदाचित् ज्ञानरूप कहने के साथ-साथ कदाचित् अज्ञानरूप भी बता दिया है, इसका क्या रहस्य है ? क्या ज्ञान आत्मा से भिन्न है ? इसका उत्तर यह है कि वैसे तो आत्मा ज्ञान से अभिन्न है, वह त्रिकाल में भी ज्ञानरहित नहीं हो सकता, परन्तु यहाँ ज्ञान का अर्थ सम्यग्ज्ञान है और अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं, अपितु मिथ्याज्ञान है। सम्यक्त्व होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान और मति-श्रुतादिरूप हो जाता है और मिथ्याज्ञान होने पर ज्ञान, अज्ञान यानी मति-अज्ञानादि रूप हो जाता है। वैसे सामान्यतया ज्ञान आत्मा से भिन्न नहीं है क्योंकि वह आत्मा का धर्म है। धर्म धर्मी से कदापि भिन्न नहीं हो सकता। इस अभेददृष्टि से 'ज्ञान को नियम से आत्मा' (आत्मस्वरूप) कहा गया है। अज्ञान भी है तो ज्ञान का ही विकृत रूप, किन्तु वह मिथ्यात्व के कारण विपरीत (मिथ्याज्ञान) हो जाता है। इसलिए यहाँ आत्मा को कथञ्चित् अज्ञान रूप कहा गया है।
११. आया भंते ! नेरइयाणं नाणे, अन्ने नेरइयाणं नाणे ? गोयमा! आया नेरइयाणं सिय नाणे सिय अन्नाणे, नाणे पुण से नियमं आया। [११ प्र.] भगवन् ! नैरयिकों की आत्मा ज्ञानरूप है अथवा अज्ञानरूप है ?
[११ उ.] गौतम ! नैरयिकों की आत्मा कथञ्चित् ज्ञानरूप है और कथञ्चित् अज्ञानरूप है। किन्तु उनका ज्ञान नियमतः (अवश्य ही) आत्मरूप है।
१२. एवं जाव थणियकुमाराणं। __ [१२] इसी प्रकार (का प्रश्नोत्तर) 'स्तनितकुमार' (भवनपति देव के अन्तिम प्रकार) तक कहना चाहिए।
१३. आया भंते ! पुढविकाइयाणं अन्नाणे, अन्ने पुढविकाइयाणं अन्नाणे ? गोयमा ! आया पुढविकाइयाणं नियमं अनाणे, अण्णाणे वि नियमं आया।
[१३ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों की आत्मा क्या अज्ञानरूप (मिथ्याज्ञानरूप ही) है ? क्या पृथ्वीकायिकों का अज्ञान अन्य (आत्मरूप नहीं) है ?
[१३ उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिकों की आत्मा नियम से अज्ञानरूप है, परन्तु उनका अज्ञान अवश्य ही आत्मरूप है।
१. भगवती. अभय. वृत्ति, पत्र ५९२