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________________ बारहवाँ शतक : उद्देशक - ९ [ २८ प्र.] भगवन् ! नरदेवों का कितने काल का अन्तर होता है ? [ २८ उ.] गौतम ! ( नरदेव का अन्तर) जघन्य सागरोपम से कुछ अधिक और उत्कृष्ट अनन्तकाल, देशान अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त - काल पर्यन्त होता है । २९. धम्मदेवस्स णं० पुच्छा । गोयमा ! जहन्त्रेण पलिओवमपुहत्तं उक्कोसेणं अनंतं कालं जाव अवड्ढ पोग्गलपरियट्टं देसूणं । [२९ प्र.] भगवन् ! धर्मदेव का अन्तर कितने काल तक का होता है ? [ २९ उ.] गौतम ! (धर्मदेव का अन्तर) जघन्य पल्योपम - पृथक्त्व (दो से नौ पल्योपम) तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल यावत् देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त्त तक होता है। ३०. देवाहिदेवाणं पुच्छा । गोयमा ! नत्थि अंतरं । २१९ [३० प्र.] भगवन् ! देवाधिदेवों का अन्तर कितने काल तक का होता है ? [ ३० उ. ] गौतम ! देवाधिदेवों का अन्तर नहीं होता । ३१. भावदेवस्स णं पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अनंतं कालं-वणस्सतिकालो। [३१ प्र.] भगवन् ! भावदेव का अन्तर कितने काल का होता है ? [३१ उ.] गौतम ! (भावदेव का अन्तर) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल-वनस्पतिकाल पर्यन्त अन्तर होता है । विवेचन अन्तर : आशय यहाँ पंचविध देवों के अन्तर से शास्त्रकार का यह आशय है कि एक देव को अपना एक भव पूर्ण करके पुन: उसी भव में उत्पन्न होने में जितने काल का जघन्य या उत्कृष्ट अन्तर ( व्यवधान) होता है, वह अन्तर है । भव्यद्रव्यदेव के जघन्य एवं उत्कृष्ट अन्तर का कारण — कोई भव्यद्रव्यदेव दस हजार वर्ष की स्थिति वाले व्यन्तरादि देवों में उत्पन्न हुआ और वहाँ से च्यव कर शुभ पृथ्वीकायादि में चला गया। वहाँ अन्तर्मुहूर्त तक रहा, फिर तुरन्त भव्यद्रव्यदेव में उत्पन्न हो गया। इस दृष्टि से भव्यद्रव्यदेव का अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष होता है। कई लोग यह शंका प्रस्तुत करते हैं कि दस हजार वर्ष का आयुष्य तो समझ में आता है, किन्तु वह जब आयुष्य पूर्ण होने के तुरन्त बाद ही उत्पन्न हो जाता है, शुभ पृथ्वी आदि में फिर अन्तर्मुहूर्त अधिक कैसे लग जाता है, यह समझ में नहीं आता। इसका समाधान करते हुए कोई आचार्य कहते हैं— जिसने देव का आयुष्य बांध लिया है, उसको यहाँ ' भव्यद्रव्यदेव' रूप से समझना चाहिए। इससे दस हजार वर्ष की स्थिति वाला देव, देवलोक से च्यव कर भव्यद्रव्यदेव रूप से उत्पन्न होता है और अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् आयुष्य का बन्ध करता है । इसलिए अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष का अन्तर होता है तथा अपर्याप्त जीव देवगति में उत्पन्न नहीं हो सकता है, अत: पर्याप्त होने के बाद ही उसे भव्यद्रव्यदेव मानना चाहिए। ऐसा मानने से जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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