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बारहवाँ शतक : उद्देशक-९
२१७ [२३-२ प्र.] (भगवन् ! ) यदि वे देवों में उत्पन्न होते हैं, तो क्या भवनवासिदेवों में उत्पन्न होते हैं, अथवा वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क या वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं ?
[२३-२ उ.] गौतम ! वे न तो भवनवासियों में उत्पन्न होते हैं, न वाणव्यन्तर देवों में और न ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु वैमानिक देवों में—(यहाँ तक कि) सभी वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं। (अर्थात्-प्रथम सौधर्मदेव से लेकर) यावत् सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक देवों में उत्पन्न होते हैं। उनमें से कोई-कोई धर्मदेव सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त कर देते हैं।
२४. देवाहिदेवा अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति ? कहिं उववजंति ? गोयमा ! सिझंति जाव अंतं करेंति। [२४ प्र.] भगवन् ! देवाधिदेव आयुष्य पूर्ण कर दूसरे ही क्षण कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? [२४ उ.] गौतम ! वे सिद्ध होते हैं, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं। २५. भावदेवा णं भंते ! अणंतरं उव्वट्टित्ता० पुच्छा।
जहा वक्कंतीए असुरकुमाराणं उव्वट्टणा तहा भाणियव्वा। _[२५ प्र.] भगवन् ! भावदेव, आयु पूर्ण कर तत्काल कहाँ उत्पन्न होते हैं ?
[२५ उ.] गौतम ! (प्रज्ञापनासूत्र के छठे) व्युत्क्रान्तिपदं में जिस प्रकार असुरकुमारों की उद्वर्त्तना कही है, उसी प्रकार यहाँ भावदेवों की भी उद्वर्तना कहनी चाहिए।
विवेचन—प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. २१ से २५ तक) में पूर्वोक्त पंचविध देवों की उद्वर्तना (आयुष्य पूर्ण होने) के तत्काल बाद उनकी गति-उत्पत्ति का निरूपण किया गया है।
भव्यद्रव्यदेवों के लिए नरकादिगतित्रयनिषेध—भव्यद्रव्यदेव भाविदेवभव का स्वभाव होने से नारक आदि तीन भवों में जाने और उत्पन्न होने का निषेध किया गया है।'
नरदेवों की उद्वर्तनानन्तर उत्पत्ति-कामभोगों में आसक्त नरदेव (चक्रवर्ती) उनका त्याग न कर सकने के कारण नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, इसलिए शेष तीन भवों में उनकी उत्पति का निषेध किया गया है। यद्यपि कई चक्रवर्ती देवों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु वे देवों में या सिद्धों में तभी उत्पन्न होते हैं, जब नरदेवरूप को त्याग कर धर्मदेवत्व प्राप्त कर लेते हैं, अर्थात् —जब चक्रवर्ती चक्रवर्तित्व छोड़कर चारित्र अंगीकार करके धर्मदेव (साधु) बन जाते हैं।
कठिन शब्दार्थ-उव्वट्टित्ता-उद्वर्त्तना करके—मरकर, शरीर से जीव निकल कर।अणंतरं—बिना किसी अन्तर (व्यवधान) के तत्काल, तुरन्त। १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५८६ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५८६ ३. पाइअसद्दमहण्णवो, पृ. १८४-२९