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बारहवां शतक : उद्देशक-७
२०१ २२.[१] अयं णं भंते ! जीवे सव्वजीवाणं रायत्ताए जुवरायत्ताए जाव सत्थवाहत्ताए उववन्नपुव्वे ? हंता, गोयमा ! असई जव अणंतखुत्तो।
[२२-१ प्र.] भगवन् ! यह जीव, क्या सब जीवों के राजा के रूप में, युवराज के रूप में, यावत् सार्थवाह के रूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ?
[२२-१ उ.] हाँ गौतम ! (यह जीव पूर्वोक्त रूपों में) अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चुका है।
[२] सव्वजीवा णं० एवं चेव। [२२-२] इस जीव के राजा आदि के रूप में सभी जीवों की उत्पत्ति का कथन भी पूर्ववत् कहना चाहिए।
२३. [१] अयं णं भंते ! जीवे सव्वजीवाणं दासत्ताए पेसत्ताए भयगत्ताए भाइल्लत्ताए भोगपुरिसत्ताए सीसत्ताए वेसत्ताए उववन्नपुव्वे ?
हंता, गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो। । _ [२३-१ प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव, सभी जीवों के दास रूप में, प्रेष्य (नौकर) के रूप में, भृतक रूप में, भागीदार के रूप में, भोगपुरुष के रूप में, शिष्य के रूप में और द्वेष्य (द्वेषी—ईर्ष्यालु) के रूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ?
। [२३-१ उ.] हाँ गौतम ! (यह जीव, सब जीवों के दास आदि के रूप में) यावत् अनेक बार या अनन्त बार (पहले उत्पन्न हो चुका है।)
[२] एवं सव्वजीवा वि अणंतखुत्तो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरति।
॥ बारसमे सए : सत्तमो उद्देसओ समत्तो ॥१२-७॥ [२३-२] इसी प्रकार सभी जीव भी, (इस जीव के दास आदि के रूप में) यावत् अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चुके हैं।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं।
विवेचन—प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. २० से २३ तक) में एक जीव एवं सर्वजीवों की अपेक्षा से माता आदि के रूप में, शत्रु आदि के रूप में, राजा आदि के रूप में दासादि के रूप में अनेक बार या अनन्त बार उत्पन्न होने की प्ररूपणा की गई है।
कठिन शब्दों के अर्थ-अरित्ताए -सामान्यतः शत्रु के रूप में, वेरियत्ताए—जिसके साथ परम्परा से शत्रुभाव हो, उस वैरी के रूप में, घायगत्ताए-जान से मार डालने वाले हत्यारे के रूप में, वहगत्ताए—मारपीट