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बारहवां शतक : उद्देशक-७
१९९ [१६-२ उ.] (जैसे एक जीव के विषय में कहा,) इसी प्रकार सर्व जीवों के विषय में कहना चाहिए। १७. एवं जाव आणय-पाणएसु। एवं आरणच्चुएसु वि।
[१७] इसी प्रकार यावत् आनत और प्राणत तक जानना चाहिए। आरण और अच्युत तक भी इसी प्रकार जानना चाहिए।
१८. अयं णं भंते ! जीवे तिसु वि अट्ठारसुत्तरेसु गेवेजविमाणावाससएसु० ? एवं चेव।
[१८ प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव तीन सौ अठारह ग्रैवेयक विमानावासों में से प्रत्येक विमानावास में पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् उत्पन्न हो चुका है ?
[१८ उ.] हाँ गौतम ! (वह अनेक बार या अनन्त बार) पूर्ववत् उत्पन्न हो चुका है।
१९. [१] अयं णं भंते ! जीवे पंचसु अणुत्तरविमाणेसु एगमेगंसि अणुत्तरविमाणंसि पुढवि० तहेव जाव अणंतखुत्तो, नो चेव णं देवत्ताए वा, देवित्ताए वा।
[१९-१ प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव पांच अनुत्तरविमानों में से प्रत्येक अनुत्तर विमान में, पृथ्वीकायिक रूप में, यावत् उत्पन्न हो चुका है ? हाँ, किन्तु वहाँ (अनन्त बार) देव रूप में, वा देवी रूप में उत्पन्न नहीं हुआ।
[२] एवं सव्वजीवा वि। [१९-२] इसी प्रकार सभी जीवों के (पूर्वोक्त रूप में उत्पत्ति के) विषय में जानना चाहिए।
विवेचन–रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर अनुत्तर बिमान के आवासों में जीव की उत्पत्ति की प्ररूपणाप्रस्तुत १५ सूत्रों (सू. ५ से १९ तक) में एक जीव एवं सर्वजीवों की अपेक्षा से रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों से लेकर अनुत्तरविमान के विमानावासों तक में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के समग्र रूपों में उत्पत्ति की प्ररूपणा की गई है।
__'नरगत्ताए' आदि शब्दों के भावार्थ-नरगत्ताए-नरकावास में पृथ्वीकायिक रूप में। असईअनेक बार। अणंतखुत्तो-अनन्त बार। असंखेजु पुढविकाइयावास-सयसहस्सेसु-असंख्यात लाख पृथ्वीकायिकावासों में। पृथ्वीकायिकावास असंख्यात. हैं, किन्तु उनकी बहुलता बतलाने के लिए शतसहस्त्र (लाख) शब्द प्रयुक्त किया गया है। 'नो चेव णं देवित्ताए'-ईशान देवलोक तक ही देवियाँ उत्पन्न होती हैं, सनत्कुमार आदि देवलोकों में नहीं, इस दृष्टि से कहा गया है कि सनत्कुमार आदि देवलोकों में, देवीरूप में उत्पन्न नहीं होता।
____ 'नो चेवणं देवत्ताए देवित्ताए वा'-अनुत्तरविमानों में कोई भी जीव देवरूप से अनन्त बार उत्पन्न नहीं होता, और देवियों की उत्पत्ति तो वहाँ सर्वथा है ही नहीं, इसलिए कहा गया है कि अनुत्तर विमानों में न तो अनन्त बार देवरूप में कोई जीव उत्पन्न होता है और न देवी रूप में। १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५८१ (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ४, पृ. २०७९