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बारहवाँ शतक : उद्देशक-७ पूर्ववत् उत्पन्न हो चुके हैं ?
[८ उ.] (हाँ गौतम ! ) शेष सर्वकथन रत्नप्रभापृथ्वी के समान समझना चाहिए।
९.[१]अयंणं भंते ! जीवे चोयट्ठीए असुरकुमारावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि असुरकुमारावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सतिकाइयत्ताए देवत्ताए देवित्ताए आसण-सयण-भंडमत्तोवगरणत्ताए उववन्नपुव्वे ?
हंता गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो।
[९-१ प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव, असुरकुमारों के चौसठ लाख असुरकुमारावासों में से प्रत्येक असुरकुमारावास में पृथ्वीकायिकरूप में यावत् वनस्पतिकायिकरूप में, देवरूप में या देवीरूप में अथवा आसन, शयन, भांड, पात्र आदि उपकरणरूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ?
[९-१ उ.] हाँ गौतम ! (वह पूर्वोक्तरूप में) अनेक बार या अनन्त बार (उत्पन्न हो चुका है।) [२] सव्वजीवा वि णं भंते ! ० एवं चेव । . [९-२ प्र.] भगवन् ! क्या सभी जीव (पूर्वोक्तरूप में उत्पन्न हो चुके हैं)? . . [९-२ उ.] हाँ, गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत् कहना चाहिए)। १०. एवं जाव थणियकुमारेसु नाणत्तं आवासेसु आवासा पुव्वभणिया।
[१०] इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए। किन्तु उनके आवासों की संख्या में अन्तर है। आवाससंख्या (भगवती. श. १, उ. ५, सू. १-५ में) पहले बताई जा चुकी है।
११. [१] अयं णं भंते ! जीवे असंखेजेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सतिकाइयत्ताए उववन्नपुव्वे ?
हंता, गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो।
[११-१ प्र.] भंते ! क्या यह जीव असंख्यात लाख पृथ्वीकायिक-आवासों में से प्रत्येक पृथ्वीकायिकआवास में पृथ्वीकायिकरूप में यावत् वनस्पतिकायिकरूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ?
[११-१ उ.] हाँ गौतम ! (वह उक्तरूप में) अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चुका है। [२] एवं सव्वजीवा वि। [११-२] इसी प्रकार (का आलापक) सर्वजीवों के (विषय में कहना चाहिए)। १२. एवं जाव वणस्सतिकाइएसु। [१२] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिकों के आवासों के (विषय में भी पूर्वोक्त कथन करना चाहिए)।