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बारहवाँ शतक : उद्देशक-५
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गर्भ में आगमन के समय जीव में वर्णादिप्ररूपणा
३६. जीवे ण भंते ! गब्भं वक्कममाणे कतिवण्णं कतिगंधं कतिरसं कतिफासं परिणामं परिणमति ? गोयमा ! पंचवण्णं दुगंधं पंचरसं अट्ठफासं परिणामं परिणमति। [३६ प्र.] भगवन् ! गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव, पांच वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाला होता है ?
[३६ उ.] गौतम ! (गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव) पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ-स्पर्श वाले परिणाम से परिणत होता है।
विवेचन–गर्भ में प्रवेश करता हुआ जीव-शरीरयुक्त होता है। इसलिए वह अन्य शरीरवत् पंचवर्णादि वाला होता है। कर्मों से जीव का विविध रूपों में परिणमन
३७. कम्मतो णं भंते ! जीवे, नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ, कम्मतो णं जए, नो अकम्मतो विभत्तिभावं परिणमइ ?
हंता, गोयमा ! कम्मतो णं० तं चेव जाव परिणमइ, नो अकम्मतो विभत्तिभावं परिणमइ। . सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। .
॥बारसमे सए : पंचमो उद्देसओ समत्तो॥१२-५॥ [३७ प्र.] भगवन् ! क्या जीव कर्मों से ही मनुष्य-तिर्यञ्च आदि विविध रूपों को प्राप्त होता है, कर्मों के विना नहीं ? तथा क्या जगत् कर्मों से विविध रूपों को प्राप्त होता है, बिना कर्मों के प्राप्त नहीं होता है।
[३७ उ.] गौतम ! कर्म से जीव और जगत (जीवों का समह) विविध रूपों को प्राप्त होता है, किन्त. कर्म के विना ये विविध रूपों को प्राप्त नहीं होते। ____ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवान् ! यह इसी प्रकार है' यों कहकर गौतम स्वामी, यावत् विचरते
विवेचन-कर्म के विना जीव नाना परिणाम वाला नहीं-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव भवों में जीव जो विभक्तिभाव (विभाग रूप नानारूप) भाव (परिणाम) को प्राप्त होता है, वह कर्म के विना नहीं हो सकता। कर्मों के उदय से ही जीव विविध रूपों को प्राप्त होता है। सुख-दु:ख, सम्पन्नता-विपन्नता, जन्म-मरण, रोग-शोक, संयोग-वियोग आदि परिणामों को जीव स्वकृत कर्मों के उदय से ही भोगता है।' जगत् का अर्थ है जीवसमूह या जंगमा ॥ बारहवां शतक : पंचम उद्देशक समाप्त॥
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१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५७५ २. "जगत्-जीवसमूहो, जीवद्रव्यस्यैव वा विशेषो जंगमाभिधानो, जगन्ति जंगमान्यहुरिति वचनात्।"
—वही, पत्र ५६५