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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
जीवा असा समाणा नो बहूणं जहा सुत्ता (सु. १८ [२] ) तला अलसा भाणियव्वा । जहा जागरा (सु. १८ [ २ ] ) तहा दक्खा भाणियव्वा जाव संजाएत्तारो भवंति । एए णं जीवा दक्खा समाणा बहूहिं आयरियवेयावच्चेहिं, उवज्झायवेयावच्चेहिं, थेरवेयावच्चेहिं, तवस्सिवेयावच्चेहिं, गिलाणवेयावच्चेहिं, सेहवेयावच्चेहिं, कुलवेयावच्चेहिं, गणवेयावच्चेहिं, संघवेयावच्चेहिं, साहम्मियवेयावच्चेहिं अत्ताणं संजोएत्ता भवंति । एतेसि ण जीवाणं दक्खत्तं साहू । से तेणट्टेणं तं चेव जाव साहू |
[२०-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि यावत् कुछ जीवों का आलसीपन अच्छा है।
[२०-२ उ.] जयंती ! जो जीव अधार्मिक यावत् अधर्म द्वारा आजीविका करते हैं, उन जीवों का आलसीपन अच्छा । यदि वे आलसी होंगे तो प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख, शोक और परिताप उत्पन्न करने में प्रवृत्त नहीं होंगे, इत्यादि सब सुप्त के समान कहना चाहिए तथा दक्षता (उद्यमीपन) का कथन जाग्रत के समान कहना चाहिए, यावत् वे (दक्ष जीव) स्व, पर और उभय को धर्म के साथ संयोजित करने वाले होते हैं । ये जीव दक्ष हों तो आचार्य की वैयावृत्य, उपाध्याय की वैयावृत्य, स्थविरों की वैयावृत्य, तपस्वियों की वैयावृत्य, ग्लान (रुग्ण) की वैयावृत्य शैक्ष (नवदीक्षित) की वैयावृत्य, कुलवैयावृत्य, गणवैयावृत्य, संघवैयावृत्य और साधर्मिक वैयावृत्य (सेवा) से अपने आपको संयोजित ( संलग्न) करने वाले होते हैं। इसलिए इन जीवों की दक्षता अच्छी है
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हे जयंती ! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है, कि कुछ जीवों का दक्षत्व (उद्यमीपन) अच्छा है और कुछ जीवों का आलसीपन अच्छा है।
विवेचन — कौन श्रेष्ठ – सुप्त या जागृत, सबल या दुर्बल ? दक्ष या आलसी ? - प्रस्तुत सूत्रत्रय (१८-१९-२०) में अपेक्षा -भेद से सुप्त आदि के अच्छे होने, न होने का सकारण प्रतिपादन किया गया है।
कुछ शब्दों के निर्वचनपूर्वक अर्थ अहम्मिया - अधार्मिक— श्रुत - चारित्र - रूप धर्म का जो आचरण करते हैं, वे धार्मिक हैं, जो धार्मिक नहीं है, वे अधार्मिक है । अहम्माणुया अधर्मानुग— श्रुतरूप धर्म का जो अनुसर करते हैं, धर्मानुसार चलते हैं, वे धर्मानुग और जो धर्मानुग नहीं हैं, वे अधर्मानुग हैं । अहम्मिट्ठाअधर्मिष्ठ—श्रुतरूप धर्म ही जिन्हें इष्ट बल्लभ ( प्रिय) या जिनके द्वारा पूजित (आदृत) है, वे धर्मिष्ठ हैं, अथवा धर्मीजनों को जो इष्ट (प्रिय) हैं वे धर्मिष्ठ हैं, या अतिशय धर्मी - धर्मिष्ठ हैं, जो धर्मेष्ट, धर्मीष्ट या धर्मिष्ठ नहीं हैं, वे अधर्मेष्ट, अधर्मीष्ट या अधर्मिष्ट हैं। अहम्मक्खाई— जो धर्म का आख्यान - कथनं (बात) नहीं करते वे अधर्माख्यायी हैं, अथवा अधर्मरूप में जिनकी ख्याति - प्रसिद्धि है, वे अधर्मख्याति । अहम्मपलोईजो धर्म को उपादेयरूप से नहीं देखते अथवा जो अधर्म का ही अहर्निश चिन्तन - निरीक्षण करते हैं, वे अधर्मप्रलोकी हैं। अहम्मपलज्जणा — अधर्मप्ररंजना — अधर्म में जो रंगे हुए हैं, अधर्म में आरक्त - आसक्त हैं,
। अहम्मसमुदाचारा— अधर्मसमुदाचार — जिनमें चारित्रात्मक धर्माचार नहीं है, अथवा जिनका धर्माचार सप्रमोद (प्रसन्नता युक्त) नहीं है, अहम्मेण - श्रुत - चारित्ररूप धर्म से विरुद्ध । विंति कप्पेमाण – वृत्तिजीविका करने वाले । "
१. भगवती. अभय वृत्ति, पत्र ५६०