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________________ बारहवाँ शतक : उद्देशक-१ ११३ कठिन शब्दार्थ-उवक्खडावेह—तैयार कराओ। आसाएमाणा-आस्वादन करते हुए; भावार्थ है—गन्ने के टुकड़ों की तरह थोड़ा खाते हुए और छिलके आदि बहुत सा भाग फेंकते हुए। विस्साएमाणाविशेष प्रकार से आस्वादन करते हुए, भावार्थ है—खजूर आदि की तरह बहुत कम छोड़ते हुए। परिभाएमाणापरस्पर एक दूसरे को परोसते-देते हुए। परिभुंजेमाणा—सारा (थाली में लिया हुआ) ही खाते हुए, जरा भी जूठा न छोड़ते हुए। इन चारों में वर्तमान में चालू क्रिया का निर्देशक 'शानच्' प्रत्यय है, परन्तु ये वार्तमानिक 'प्रत्ययान्त शब्द भूतकालिक प्रत्ययान्तद्योतक समझना चाहिए। पक्खियं—पाक्षिक, पन्द्रह दिनों में होने वाला। पोसह–अव्यापाररूप पौषध, आहार-प्रत्याख्यान के अतिरिक्त अब्रह्मचर्य सेवन, रत्नादि आभूषण, मालाविलेपनादि शस्त्रमूसलादिक सावध व्यापार तथा स्नान शृंगार एवं व्यवसाय के त्याग को ही यहाँ अव्यापारपौषध समझना चाहिए। पडिजागरमाणा-अनुपालन करते हुए, अर्थात्—पौषध करके धर्मजागरणा करते हुए। विहरिस्सामो—एक अहोरात्र यापन करेंगे। पडिसुणंति—सुन कर स्वीकृति रूप में प्रत्युत्तर देते हैं, स्वीकार करते हैं। ___ पौषध के मुख्य दो प्रकार—प्रस्तुत पाठ से यह फलितार्थ निकलता है कि पौषध दो प्रकार का है— (१) चतुर्विध आहारत्याग-पौषध और (२) आहार-सेवनयुक्त पौषध । प्रस्तुत में शंख श्रमणोपासक ने आहारसेवनपूर्वक पौषध करने का विचार प्रस्तुत किया है, जिसे वर्तमान में देश पौषध, देशावकाशिकव्रत-रूप पौषध, अथवा दयाव्रत, या छकाया (षटकायारम्भ-त्याग) कहते हैं। शंख श्रमणोपासक द्वारा आहारत्यागपूर्वक पौषध का अनुपालन १२. तए णं तस्स संखस्स समणोवासगस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था—'नो खलु मे सेयं तं विउलं असणं जाव साइमं आसाएमाणस्स विस्साएमाणस्स परिभाएमाणस्स परिभुंजेमाणस्स पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तए। सेयं खलु मे पोसहसालाए पोसहियस्स बंभयारिस्स उम्मुक्कमणि-सुवणस्स ववगयमाला-वण्णग-विलेवणस्स निक्खित्तसत्थ-मुसलस्स एगस्स अविइयस्स दब्भसंथारोवगयस्स पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तए' त्ति कट्ट एवं संपेहेति, ए० सं० २ जेणेव सावत्थी नयरी जेणेव सए गिहे जेणेव उप्पला समाणोवासिया तेणेव उवागच्छति, उवा० २ उप्पलं समणोवासियं आपुच्छति, उ० आ० २ जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छति, उवा० २ पोसहसालं अणुपविसति, पो० अ० २ पोसहसालं पमजति, पो० प० २ उच्चार-पासवणभूमि पडिलेहेति, उ० प० २ दब्भसंथारगं संथरति, द० स० २ दब्भसंथारगं दुरूहइ, दुरूहित्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभचारी जाव पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणे विहरति। [१२] तदनन्तर उस शंख श्रमणोपासक को एक ऐसा अध्यवसाय (विचार एवं अभीष्ट मनोगत संकल्प) १. भगवतीसूक्त, अभय. वृत्ति, पत्र ५५५ २. (क) भगवतीसूत्र, विवेचन, (पं. घेवरचन्दजी) भा. ४, पृ. १९७५ (ख) अभिधानराजेन्द्र कोष. 'पोसह' शब्द
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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