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बारहवां शतक : प्राथमिक
१०९ किया है कि राहु आता-जाता, विक्रिया करता या कामक्रीडा करता हुआ जब पूर्वादि दिशाओं में चन्द्रमा की ज्योत्स्ना को आच्छादित कर देता है तब इसी को लोग राहु द्वारा चन्द्र का ग्रसन, ग्रहण भेदण, वमन या भक्षण करना कह देते हैं। तत्पश्चात् ध्रुवराहु और पर्वराहु के स्वरूप और कार्य का, चन्द्र को शशि और सूर्य को आदित्य कहने के कारण का तथा चन्द्र और सूर्य के कामभोगजनित सुखों का प्रतिपादन किया गया है। सप्तम उद्देशक में समस्त दिशाओं से असंख्येय कोटा-कोटि योजनप्रमाण लोक में परमाणु पुद्गल जितने आकाशप्रदेश के भी जन्म-मरण से अस्पृष्ट न रहने का तथ्य अजा-व्रज के दृष्टान्तपूर्वक सिद्ध, किया गया है । तत्पश्चात् रत्नप्रभा पृथ्वी से लेकर अनुत्तर विमान के आवासों में अनेक या अनन्त बार उत्पत्ति की तथा एक जीव और सर्व जीवों की अपेक्षा से माता आदि के रूप में, शत्रु आदि के रूप में, राजादि के रूप में एवं दासादि के रूप में अनेक या अनन्त बार उत्पन्न होने की प्ररूपणा की गई है। अष्टम उद्देशक में महर्द्धिक देव की नाग, मणि एवं वृक्षादि से उत्पत्ति एवं प्रभाव की चर्चा की गई है। तत्पश्चात् निःशील, व्रतादिरहित महान् वानर, कुक्कुट एवं मण्डूक, सिंह, व्याघ्रादि तथा ढंक कंकादि पक्षी आदि के प्रथम नरक के नैरयिक रूप से उत्पत्ति की प्ररूपणा की गई है। नौवें उद्देशक में भव्यद्रव्यदेव आदि पंचविध देव, उनके स्वरूप तथा उनकी आगति, जघन्य-उत्कृष्ट स्थिति, विक्रियाशक्ति, मरणानन्तरगति-उत्पत्ति, उद्वर्तना, संस्थितिकाल, अन्तर, पंचविध देवों के अल्पबहुत्व एवं भाव देवों के अल्पबहुत्व का प्रतिपादन किया गया है। दसवें उद्देशक में आठ प्रकार की आत्मा तथा उनमें परस्पर सम्बन्धों का निरूपण किया गया है। तत्पश्चात् आत्मा की ज्ञान-दर्शन से भिन्नता-अभिन्नता, तथा रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर अच्युतकल्प तक के आत्मा, नी-आत्मा के रूप में कथन किया गया है। तदनन्तर परमाणुपुद्गल से लेकर द्विप्रदेशिक, त्रिप्रदेशिक, चतुष्प्रदेशिक यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक में सकलादेश-विकलादेश की अपेक्षा से विविध भंगों का प्रतिपादन किया गया है। कुल मिला कर आत्मा का विविध पहलुओं से, विविध रूप में कथन, साधना द्वारा जीव और कर्म का पृथक्करण, परमाणुपुद्गलों से सम्बन्ध आदि का रोचक वर्णन प्रस्तुत शतक में किया गया है।
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१. वियाहपण्णेत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ.५३० से ६१४ तक