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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी-देशविरत (किसी अंश में प्राणातिपातादि पाप से निवृत्त और किसी अंश में अनिवृत्त ।)
प्रत्याख्यान-ज्ञानसूत्र का आशय - प्रत्याख्यानादि तीन का सम्यग्ज्ञान तभी हो सकता है, जब उस जीव में सम्यग्दर्शन हो। इसलिए नारक, चारों निकाय के देव, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और मनुष्य, इन १६ दण्डकों के समनस्क संज्ञी एवं सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रिय जीव ही ज्ञपरिज्ञा से प्रत्याख्यानादि तीनों को सम्यक् प्रकार से जानते हैं, शेष अमनस्क-असंज्ञी एवं मिथ्यादृष्टि (पंचेन्द्रिय मिथ्यात्वी, एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय) प्रत्याख्यानादि तीनों को नहीं जानते। यही इस सूत्र का आशय है।
प्रत्याख्यानकरणसूत्र का आशय —प्रत्याख्यान तभी होता है, जबकि वह किया—स्वीकार किया जाता है। सच्चे अर्थों में प्रत्याख्यान या प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान वही करता है, जो प्रत्याख्यान एवं प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान को जानता हो। शेष जीव तो अप्रत्याख्यान ही करते हैं। यह इस सूत्र का आशय है।
प्रत्याख्यान निर्वर्तित आयुष्यबंध का आशय-प्रत्याख्यान आदि से आयुष्य बांधे हुए को प्रत्याख्याननिर्वर्तित आयुष्यबंध कहते हैं। प्रत्याख्यानादि तीनों आयुष्यबंध में कारण होते हैं। वैसे तो जीव और वैमानिक देवों में प्रत्याख्यानादि तीनों वाले जीवों की उत्पत्ति होती है किन्तु प्रत्याख्यान वाले जीवों की उत्पत्ति प्रायः वैमानिकों में एवं अप्रत्याख्यानी अविरत जीवों की उत्पत्ति प्राय: नैरयिक आदि में होती है।' प्रत्याख्यानादि से सम्बन्धित संग्रहणी गाथा
२५. गाथा__ पच्चक्खाणं १ जाणइ २ कुव्वति ३ तेणेव आउनिव्वत्ती ४।
सपदेसुद्देसम्मि य एमए दंडगा चउरो ॥२॥ सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति।
॥छटे सए : चउत्थो उद्देसो समत्तो॥ [२५. गाथार्थ –] प्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान का जानना, करना, तीनों का (जानना, करना), तथा आयुष्य की निर्वृति, इस प्रकार के ये चार दण्डक सप्रदेश (नामक चतुर्थ) उद्देशक में कहे गए हैं।
॥ छठा शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त॥
१. (क) भगवतीसूत्र अ. वृति, पत्रांक २६६-२६७
(ख) भगवती. हिन्दी विवेचन भा. २, पृ. ९९७-९९९