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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के समान जानना चाहिए। इतना विशेष है कि ये तेतीस श्रमणोपासक चम्पानगरी के निवासी थे, यावत् ईशानेन्द्र कै त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उत्पन्न हुए। (इसके पश्चात्) जब से ये चम्पानगरी निवासी तेतीस परस्पर सहायक श्रमणोपासक त्रायस्त्रिंशक बने, इत्यादि (प्रश्न और उसके उत्तर में) शेष समग्र वर्णन पूर्ववत् च्यवते हैं और नये (अन्य) उत्पन्न होते हैं तक करना चाहिए।
१३.[१] अस्थि णं भंते! सणंकुमारस्स देविंदस्स देवरण्णो० पुच्छा। हंता, अत्थि। [१३-१ प्र.] भगवन् ! क्या देवराज देवेन्द्र सनत्कुमार के त्रायस्त्रिंशक देव हैं ? [१३-१ उ.] हाँ गौतम हैं। [२] से केणढेण? जहा धरणस्स तहेव।
[१३-२ प्र.] भगवन्! किस कारण से ऐसा कहते हैं ? इत्यादि समग्र प्रश्न तथा उसके उत्तर में जैसे धरणेन्द्र के विषय में कहा है, उसी प्रकार कहना चाहिए।
१४. एवं जाव पाणतस्स। एवं अच्चुतस्स जाव अन्ने उववति । सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति।
॥दसमस्स चउत्थो॥१०-४॥ [१४] इसी प्रकार प्राणत (देवेन्द्र) तक के त्रायस्त्रिंशक देवों के विषय में जान लेना चाहिए और इसी प्रकार अच्युतेन्द्र के त्रायस्त्रिंशक देवों के सम्बन्ध में भी कि पुराने च्यवते हैं और (उनके स्थान पर) नये (त्रायस्त्रिंशक देव) उत्पन्न होते हैं, तक कहना चाहिए।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है! भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं।
विवेचन शक्रेन्द्र से अच्युतेन्द्र तक के त्रायस्त्रिंशक देवों की नित्यता—प्रस्तुत ४ सूत्रों (११ से १४ तक) में पूर्वोक्त सूत्रों का अतिदेश करके शक्रेन्द्र से अच्युतेन्द्र तक १२ प्रकार के कल्पों के वैमानिक देवेन्द्रों के त्रायस्त्रिंशक देवों की नित्यता का प्रतिपादन किया है। प्रायः सभी का वर्णन एक-सा है। केवल त्रायस्त्रिंशकों के पूर्वजन्म में उग्र, उग्रविहारी, संविग्न एवं संविग्नविहारी श्रमणोपासक थे और अन्तिम समय में इन्होंने संलेखना एवं अनशनपूर्वक एवं आलोचना प्रायश्चित करके आत्मशुद्धिपूर्वक समाधिमरण (पण्डितमरण) प्राप्त किाय था।
त्रायस्त्रिंशक देव : किन देवनिकायों में ?—देवों के ४ निकाय हैं— भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक। इनमें से वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देवों में त्रायस्त्रिंशक नहीं होते, किन्तु भवनपति एवं वैमानिक देवों में होते हैं। इसीलिए यहाँ भवनपति और वैमानिक देवों के त्रायस्त्रिशक देवों का वर्णन है।
.. ॥ दशम शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥ १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. २, पृ. ४९६-४९७ २. भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी), भा. ४, पृ. १८१९