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दशम शतक : उद्देशक-४
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[१०] इसी प्रकार भूतानन्द इन्द्र, यावत् महाघोष इन्द्र के त्रायस्त्रिशक देवों के विषय में जानना चाहिए । विवेचन — धरणेन्द्र से महाघोषेन्द्र तक के त्रायस्त्रिंशक देवों की नित्यता — सूत्र ९ एवं १० में प्रतिपादित है ।
शक्रेन्द्र से अच्युतेन्द्र तक के त्रायस्त्रिंशक : कौन और कैसे ?
११.[ १ ] अत्थि णं भंते! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो० पुच्छा ।
हंता, अत्थि ।
[११-१ प्र.] भगवन्! क्या देवराज देवेन्द्र शक्र के त्रायस्त्रिशक देव हैं ? इत्यादि प्रश्न ।
[११-१ उ.] हाँ, गौतम ! हैं ।
[२] से केणट्ठेणं जाव तावत्तीसगा देवा, तावत्तीसगा देवा ?
एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वालाए नामं सन्निवेसे होत्था । वण्णओ । तत्थ णं वालाए सन्निवेसे तावत्तीसं सहाया गाहावती समणोवासगा जहा चमरस्स जाव विहरंति । तए णं ते तावत्तीसं सहाया गाहावती समणोवासगा पुव्वि पि पच्छा वि उग्गा उग्गविहारी संविग्गा संविग्गविहारी बहूई वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेंति, झू० २ सट्टिं भत्ताइं अणसणाए छेदेंति, छे० २ आलोइपडिक्कंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा जाव उववन्ना । जप्पभितिं च णं भंते ! ते वालागा तावत्तीसं सहाया गाहावती समणोवासगा सेसं जहा चमरस्स जाव अन्ने उववज्जंति ।
[११-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि देवेन्द्र देवराज शक्र के त्रायस्त्रिंशक देव हैं ?
[११-२ उ.] गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के, भारतवर्ष में बालाक (अथवा पलाशक) सन्निवेश था। उसका वर्णन करना चाहिए। उस बालाक सन्निवेश में परस्पर सहायक (अथवा प्रीतिभाजन) तेतीस गृहपति श्रमणोपासक रहते थे, इत्यादि सब वर्णन चरमेन्द्र के त्रायस्त्रिशकों (सू. ५-१-२) के अनुसार करना चाहिए, यावत् विचरण करते थे । वे तेतीस परस्पर सहायक गृहस्थ श्रमणोपासक पहले भी और पीछे भी उग्र, उग्रविहारी एवं संविग्न तथा संविग्नविहारी होकर बहुत वर्षों तक श्रमणोपासकपर्याय का पालन कर, मासिक संलेखना से शरीर को कृश करके, साठ भक्त का अनशन द्वारा छेदन करके, अन्त में आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल के अवसर पर समाधिपूर्वक काल करके यावत् शक्र के त्रायस्त्रिशक देव के रूप में उत्पन्न हुए।' भगवन् ! जब से वे बालाक निवासी परस्पर सहायक गृहपति श्रमणोपासक शक्र के त्रायस्त्रिशकों के रूप में उत्पन्न हुए, क्या तभी से शक्र के त्रायस्त्रिंशक देव हैं ? इत्यादि प्रश्न एवं उसके उत्तर में शेष समग्र वर्णन पुराने च्यवते हैं और नये उत्पन्न होते हैं, तक चमरेन्द्र के समान कहना चाहिए।'
१२. अस्थि णं भंते ! ईसाणस्स । एवं जहा सक्कस्स, नवरं चंपाए नगरीए जाव उववन्ना । जप्पिभितिं च णं भंते ! चंपिच्चा तावत्तीसं सहाया० सेसं तं चेव जाव अन्ने उववज्जंति ।
[१२ प्र. उ.] भगवन् ! क्या देवराज देवेन्द्र ईशान के त्रायस्त्रिशक देव हैं। इत्यादि प्रश्न का उत्तर शक्रेन्द्र