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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[७-२ उ.] उत्तर में पूर्वकथित त्रायस्त्रिशक देवों का समस्त वृत्तान्त कहना चाहिए यावत् वे ही (काकन्दीनिवासी परस्पर सहायक तेतीस गृहस्थ श्रमणोपासक मर कर ) चमरेन्द्र के त्रायस्त्रिश देव के रूप में उत्पन्न हुए ।
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[ ३ ] भंते ! तप्पभितिं च णं एवं वुच्चइ चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगा देवा तावत्तीसगा देवा ?
णो इणट्ठे समट्ठे, गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगाणं देवाणं सासए नामधेज्जे पण्णत्ते, जं न कदापि नासी, न कदापि न भवति, जाव निच्चे अव्वोच्छित्तिनयट्ठताए । अन्ने चयंति, अन्ने उववज्जंति ।
[७-३ प्र.] भगवन्! जब से वे (काकन्दीनिवासी परस्पर सहायक तेतीस गृहस्थ श्रमणोपासक असुरराज असुरेन्द्र चमर के ) त्रायस्त्रिश देवरूप में उत्पन्न हुए हैं क्या तभी से ऐसा कहा जाता है कि असुरराज असुरेन्द्र चमर के त्रास्त्रिशक देव है ? ( क्या इस से पूर्व उसके त्रायस्त्रिशक देव नहीं थे ?)
[७-३ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं, (अर्थात् — ऐसा सम्भव नहीं है) असुरराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिशक देव के नाम शाश्वत हो गए हैं। इसलिए किसी समय नहीं थे, या नहीं हैं, ऐसा नहीं है और कभी नहीं रहेंगे, ऐसा भी नहीं है यावत् अव्युच्छिति (द्रव्यार्थिक) नय की अपेक्षा से वे नित्य हैं, (किन्तु पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से) पहले वाले च्यवते हैं और दूसरे उत्पन्न होते हैं। (उनका प्रवाहरूप से कभी विच्छेद नहीं होता ।)
विवेचन — असुरेन्द्र के त्रायस्त्रिंशक देवों की नित्यता- अनित्यता का निर्णय — प्रस्तुत तीन सूत्रों (५-६-७) में बताया गया है कि श्यामहस्ती अनगार द्वारा असुरराज चमरेन्द्र के त्रायस्त्रिशक देवों के अस्तित्व तथा त्रायस्त्रिशक होने के कारणों के सम्बन्ध में गौतमस्वामी से पूछा । गौतमस्वामी ने उनका पूर्वजन्म का वृतान्त सुनाया। किन्तु जब श्यामहस्ती ने यह पूछा कि क्या इससे पूर्व असुरेन्द्र के त्रायस्त्रिशक देव नहीं थे ? इस पर विनम्र गौतमस्वामी ने भगवान् महावीर के चरणों में जा कर अपनी इस शंका को प्रस्तुत करके समाधान प्राप्त किया कि द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से त्रायस्त्रिशक देव शाश्वत एवं नित्य हैं, किन्तु पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से पूर्व के त्रायस्त्रिशक देव आयु समाप्त होने पर च्यवन कर जाते हैं, उनके स्थान पर नये त्रायस्त्रिंशक देव उत्पन्न होते हैं । परन्तु त्रायस्त्रिशक देवों का प्रवाहरूप से कभी विच्छेद नहीं होता ।
उगा आदि शब्दों का भावार्थ — उग्गा — भाव से उदात्त या उदारचरित । उग्गविहारी— उदार आचार वाले। संविग्गा — मोक्षप्राप्ति के इच्छुक अथवा संसार से भयभीत | संविग्गविहारी — मोक्ष के अनुकूल आचरण करने वाले । पासस्था— पाशस्थ शरीरादि मोहपाश में बंधे हुए या पार्श्वस्थ — ज्ञानादि से बहिर्भूत । पासत्थविहारी ——— मोहपाशग्रस्त होकर व्यवहार करने वाले अथवा ज्ञानादि से बहिर्भूत प्रवृत्ति करने
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पण) भा. २, पृ. ४९४-४९५