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दशम शतक : उद्देशक - २
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[५ प्र] भगवन्! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ?
[५ उ.] गौतम! वेदना तीन प्रकार की कही गई है। यथा— शीता, उष्णा और शीतोष्णा । इस प्रकार यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का सम्पूर्ण पैंतीसवाँ वेदनापद कहना चाहिए, यावत् — [प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव दुःखरूप वेदना वेदते हैं, या सुखरूप वेदना वेदते हैं, अथवा अदुःख - असुखरूप वेदना वेदते हैं ? [उ.] हे गौतम ! नैरयिक जीव दुःखरूप वेदना भी वेदते हैं, सुखरूप वेदना भी वेदते हैं और अदुःख-असुखरूप वेदना भी वेदते हैं।
विवेचन — वेदनापद के अनुसार वेदना-निरूपण - प्रस्तुत ५ वें सूत्र में प्रज्ञापनासूत्रगत वेदनापद का अतिदेश करके वेदना सम्बन्धी समग्र निरूपण का संकेत किया गया है।"
वेदना : : स्वरूप और प्रकार — जो वेदी (अनुभव की) जाए उसे वेदना कहते हैं । प्रस्तुत में वेदना के तीन प्रकार बताए गए हैं—— शीतवेदना, उष्णवेदना और शीतोष्णवेदना । नरक में शीत और उष्ण दोनों प्रकार की वेदना पाई जाती है। शेष असुरकुमारादि से वैमानिक तक २३ दण्डकों में तीनों प्रकार की वेदना पाई जाती है। दूसरे प्रकार से वेदना ४ प्रकार की है— द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः । पुद्गल द्रव्यों के सम्बन्ध से जो वेदना होती है वह द्रव्यवेदना, नरकादि क्षेत्र से सम्बन्धित वेदना क्षेत्रवेदना, पांचवें और छठे और सम्बन्धी वेदना कालवेदना, शोक- क्रोधादिसम्बन्धजनित वेदना भाववेदना है। समस्त संसारी जीवों के ये चारों प्रकार की वेदनाएँ होती हैं।
प्रकारान्तर से त्रिविधवेदना — शारीरिक, मानसिक और शारीरिक-मानसिक वेदना । १६ दण्डकवर्ती समनस्क जीव तीनों प्रकार की वेदना वेदते हैं। जबकि पांच स्थावर एवं तीन विकलेन्द्रिय इन ८ दण्डकों के असंज्ञी जीव शारीरिक वेदना वेदते हैं।
वेदना के पुनः तीन भेद — सातावेदना, असातावेदना और साता - असाता वेदना । चौबीस दण्डकों में यह तीनों प्रकार की वेदना पाई जाती है। वेदना के पुनः तीन भेद हैं- दुःखा, सुखा और अदुःखसुखा वेदना। तीनों प्रकार की वेदना चौबीस ही दण्डकों में पाई जाती है। साता-असाता तथा सुखा दुखा वेदना में अन्तर यह है कि साता - असाता क्रमश: उदयप्राप्त वेदनीयकर्म-पुद्गलों की अनुभवरूप वेदनाएँ हैं, जबकि सुखा-दु:खा दूसरे के द्वारा उदीर्यमाण वेदनीय के अनुभवरूप वेदनाएँ हैं ।
वेदना के दो भेद६ - अन्य प्रकार से भी हैं, यथा —— आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी । स्वयं कष्ट को स्वीकार करके वेदी जाने वाली आभ्युपगमिकी वेदना है, यथा— केशलोच आदि तथा औपक्रमिकी वेदना वह है, जो स्वयं उदीर्ण (उदय में आई हुई, ज्वरादि) वेदना होती है, अथवा जिसमें उदीरणा करके उदय में लाई १. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. २, पृ. ४८९
(ख) प्रज्ञापनासूत्र (म. जै. विद्यालय) ३५ वाँ वेदनापद, सू. २०५४-८४, पृ. ४२४-२७
२. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४९७
(ख) प्रज्ञापना. ३५ वाँ वेदनापद