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________________ ५८४ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र है और नोऋषि को भी? [६-२ उ.] गौतम ! ऋषि को मारने वाले उस पुरुष के मन में ऐसा विचार होता है कि मैं एक ऋषि को मारता हूँ, किन्तु वह एक ऋषि को मारता हुआ अनन्त जीवों को मारता है। इस कारण हे गौतम ! पूर्वोक्त रूप से कहा गया है। विवेचन-प्राणिघात के सम्बन्ध में सापेक्ष सिद्धान्त-(१) कोई व्यक्ति किसी पुरुष को मारता है तो कभी केवल उसी पुरुष का वध करता है, कभी उसके साथ अन्य एक जीव का और कभी अन्य जीवों का वध भी करता है, यों तीन भंग होते हैं, क्योंकि कभी उस पुरुष के आश्रित जूं, लीख, कृमि-कीड़े आदि या रक्त, मवाद आदि के आश्रित अनेक जीवों का वध कर डालता है। शरीर को सिकोड़ने-पसारने आदि में भी अनेक जीवों का वध सम्भव है। (२) ऋषि का घात करता हुआ व्यक्ति अनन्त जीवों का घात करता है, यह एक ही भंग है। इसका कारण यह है कि ऋषि अवस्था में वह सर्वविरत होने से अनन्त जीवों का रक्षक होता है, किन्तु मर जाने पर वह अविरत होकर अनन्त जीवों का घातक बन जाता है। अथवा जीवित रहता हुआ ऋषि अनेक प्राणियों को प्रतिबोध देता है, वे प्रतिबोधप्राप्त प्राणी क्रमशः मोक्ष पाते हैं। मुक्त जीव अनन्त संसारी प्राणियों के अघातक होते हैं। अत: उन अनन्त जीवों की रक्षा में जीवित ऋषि कारण है। इसलिए कहा गया है कि ऋषिघातक व्यक्ति अन्य अनन्त जीवों की घात करता है। घातक व्यक्ति को वैरस्पर्श की प्ररूपणा ७.[१] पुरिसे णं भंते! पुरिसं हणमाणे किं पुरिसवेरेणं पुढें, नोपुरिसवेरेणं पुढे ? गोयमा ! नियमा ताव पुरिसवेरेणं पुढे १ अहवा पुरिसवेरेण य णोपुरिसवेरेण य पुढे २, अहवा पुरिसवेरेण य नोपुरिसवेरेहि य पुढे ३ । [७-१ प्र.] भगवन् ! पुरुष को मारता हुआ कोई भी व्यक्ति क्या पुरुष-वैर से स्पृष्ट होता है, अथवा नोपुरुष-वैर (पुरुष के सिवाय अन्य जीव के साथ वैर) से स्पृष्ट भी होता है ? [७-१ उ.] गौतम! वह व्यक्ति नियम से (निश्चित रूप से) पुरुषवैर से स्पृष्ट होता ही है। अथवा पुरुषवैर से और नोपुरुषवैर से स्पृष्ट होता है, अथवा पुरुषवैर से और नोपुरुषवैरों (पुरुषों के अतिरिक्त अनेक जीवों से वैर) से स्पृष्ट होता है। [२] एवं आसं, एवं जाव चिल्ललगं जाव अहवा चिल्ललगवेरेण य णोचिल्ललगवेरेहि य पुढे। ___ [७-२] इसी प्रकार अश्व से लेकर यावत् चित्रल के विषय में भी जानना चाहिए, यावत् अथवा चित्रलवैर से और नोचित्रलवैरों से स्पृष्ट होता है। ८. पुरिसे णं भंते ! इसिं हणमाणे किं इसिवेरेणं पुढे, णोइसिवेरेणं पुढे ? १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, ४९१ (ख) भगवती. भा. ४ (पं. घेवरचन्दजी) पृ. १७७६
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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