________________
नवम शतक : उद्देशक-३४
५८३ [३-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है? [३-२ उ.] गौतम ! इसका उत्तर पूर्ववत् समझना चाहिए। ४. एवं हत्थिं सीहं वग्धं जाव चिल्ललगं। [४] इसी प्रकार हाथी, सिंह, व्याघ्र (बाघ) चित्रल तक समझना चाहिए।
५.[१] पुरिसं णं भंते! अन्नयरं तसपाणं हणमाणे किं अन्नयरं तसपाणं हणइ, नोअन्नयरे तसे पाणे हणइ?
गोयमा ! अन्नयरं पि तसपाणं हणइ, नोअन्नयरे वि तसे पाणे हणइ ।
[५-१ प्र.] भगवन् ! कोई पुरुष किसी एक त्रस प्राणी को मारता हुआ क्या उसी त्रसप्राणी को मारता है, अथवा उसके सिवाय अन्य त्रसप्राणियों को भी मारता है ?
__ [५-१ उ.] गौतम! वह उस त्रसप्राणी को भी मारता है और उसके सिवाय अन्य त्रसप्राणियों को भी मारता है।
। [२] से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ 'अन्नयरं पि तसपाणं [हणइ ] नोअन्नयरे वि तसे पाणे हणइ ?
गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ–एवं खलु अहं एगं अन्नयरं तसं पाणं हणामि, से णं एगं अन्नयरं तसं पाणं हणमाणे अणेगे जीवे हणइ। से तेणढेणं गोयमा ! तं चेव। सव्वे वि एक्कगमा।
[५-२ प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि वह पुरुष उस त्रसजीव को भी मारता है और उसके सिवाय अन्य त्रसजीवों को भी मारत देता है।
[५-२ उ.] गौतम! उस सजीव को मारने वाले पुरुष के मन में ऐसा विचार होता है कि मैं उसी त्रसजीव को मार रहा हूँ, किन्तु वह उस त्रसजीव को मारते हुआ, उसके सिवाय अन्य अनेक त्रसजीवों को भी मारता है। इसलिए, हे गौतम ! पूर्वोक्तरूप से जानना चाहिए। इन सभी का एक समान पाठ (आलापक) है।
६.[१] पुरिसे णं भंते ! इसिं हणमाणे किं इसिं हणइ, नोइसिं हणइ ? गोयमा ! इसिं पि हणइ नोइसिं पि हणइ।
[६-१ प्र.] भगवन् ! कोई पुरुष, ऋषि को मारता हुआ क्या ऋषि को ही मारता है, अथवा नोऋषि (ऋषि के सिवाय अन्य जीवों) को भी मारता है ?
[६-१ उ.] गौतम! वह (ऋषि को मारने वाला पुरुष) ऋषि को भी मारता है, नोऋषि को भी मारता
[२] से केणढेणं भंते! एवं वुच्चइ जाव नोइसिं पिं हणइ ?
गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ–एवं खलु अहं एग इसिं हणामि, से णं एगंइसिं हणमाणे अणंते जीवे हणइ से तेणट्टेणं निक्खेवओ।
[६-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है कि ऋषि को मारने वाला पुरुष ऋषि को भी मारता