________________
नवम शतक : उद्देशक-३३
५७१ बिछौना बिछा नहीं, बिछाया जा रहा है, इस पर जमालि को सिद्धान्त-विरुद्ध एकान्त स्फुरणा हुई कि भगवान् महावीर का चलमान को चलित कहने का सिद्धान्त मिथ्या है, मेरा सिद्धान्त यथार्थ है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष है कि जो बिछौना बिछाया जा रहा है, उसे बिछाया गया नहीं कहा जा सकता है।
विशेषार्थ-बलियतरं वेयणाए अभिभूए—प्रबलतर वेदना से अभिभूत। सेज्जासंथारगं—शयन के लिए संस्तारक (बिछौना)। कज्जमाणे अकडे- जो क्रियमाण है, वह कृत नहीं। संथरिज्जमाणे असंथरिए-बिछाया जा रहा है, वह बिछाया गया नहीं है।' कुछ श्रमणों द्वारा जमालि के सिद्धान्त का स्वीकार, कुछ के द्वारा अस्वीकार
९७. तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स एवं आइक्खमाणस्स जाव परूवेमाणस्स अत्थेगइया समणा निग्गंथा एयमढें सद्दहंति पत्तियंति रोयंति। अत्थेगइया समणा निग्गंथा एयमढ् णो सद्दहंति णो पत्तियंति णो रोयंति। तत्थं णं जे ते समणा निग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एयमझें सद्दहंति पत्तियंति रोयंति ते णं जमालिं चेव अणगारं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति। तत्थ ण जे ते समणा निग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एयमढं णो सद्दहति णो पत्तियंति णो रोयंति ते णं जमालिस्स अणगारस्स अंतियाओ कोट्ठयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता पुव्वाणुपुव्वि चरमाणा गामाणुगामं दूइज्जमाणा जेणेव चंपानयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति, करित्ता वंदंति, णमंसति २ समणं भगवं महावीरं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति।
_[९७] जमालि अनगार द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर यावत् प्ररूपणा किये जाने पर कई श्रमण-निर्ग्रन्थों ने इस (उपर्युक्त) बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि की तथा कितने ही श्रमण-निर्ग्रन्थों ने इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि नहीं की। उनमें से जिन श्रमण-निर्ग्रन्थों ने जमालि अनगार की इस (उपर्युक्त) बात पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि की, वे जमालि अनगार का आश्रय करके (निश्राय में) विचरण करने लगे और जिन श्रमणनिर्ग्रन्थों ने जमालि अनगार की इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की, वे जमालि अनगार के पास से, कोष्ठक उद्यान से निकल गए और अनुक्रम से विचरते हुए एवं ग्रामानुग्राम विहार करते हुए चम्पा नगरी के बाहर जहाँ पूर्णभद्र नामक चैत्य था और जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके पास पहुंचे। उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की, फिर वन्दना-नमस्कार करके वे भगवान् का आश्रय (निश्राय) स्वीकार कर विचरने लगे।
विवेचन—जमालि के सिद्धान्त का स्वीकार-अस्वीकार-प्रस्तुत सूत्र ९७ में बताया गया है कि जमालि की जिनवचन विरुद्ध प्ररूपणा पर जिन साधुओं ने श्रद्धा, प्रतीति और रुचि की, वे उसके पास रहे १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १, पृ. ४७७ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४८६-४८७