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________________ ५७० व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [९४] तब श्रमण-निर्ग्रन्थों ने जमालि की यह बात विनय-पूर्वक स्वीकार की और जमालि अनगार के लिए बिछौना बिछाने लगे। ९५. तए णं से जमाली अणगारे बलियतरं वेदणाए अभिभूए समाणे दोच्चं पि समणे निग्गंथे सद्दावेइ, सद्दावित्ता दोच्चं पि एवं वयासी—ममंणं देवाणुप्पिया ! सेज्जासंथारए किं कडे ? कज्जइ? तए णं ते समणा निग्गंथा जमालि अणगारं एवं वयासी—णो खलु देवाणुप्पियाणं सेज्जासंथारए कडे, कजति। __ [९५] किन्तु जमालि अनगार प्रबलतर वेदना से पीड़ित थे, इसलिए उन्होंने दुबारा फिर श्रमण-निर्ग्रन्थों को बुलाया और उनसे इस प्रकार पूछा—देवानुप्रियो ! क्या मेरे सोने के लिए संस्तारक (बिछौना) बिछा दिया या बिछा रहे हो ? इसके उत्तर में श्रमण-निर्ग्रन्थों ने जमालि अनगार से इस प्रकार कहा—देवानुप्रिय के सोने के लिए बिछौना (अभी तक) बिछा नहीं, बिछाया जा रहा है। ९६. तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था—जंणं समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खइ जाव एवं परूवेइ–एवं खलु चलमाणे चलिए, उदीरिज्झमाणे उदीरिए जाव निजरिज्जमाणे णिज्जिण्णे तं णं मिच्छा, इमं च णं पच्चक्खमेव दीसइ सेज्जासंथारए कज्जमाणए अकडे, संथरिज्जमाणे असंथरिए, जम्हाणं सेज्जासंथारए कज्जमाणे अकडे संथरिज्जमाणे असंथरिए तम्हा चलमाणे वि अचलिए जाव निजरिज्जमाणे वि अणिज्जिण्णे। एवं संपेहेइ, एवं संपेहेत्ता समणे निग्गंथे सद्दावेइ, समणे निग्गंथे सद्दावेत्ता एवं वयासी-जंणं देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खइ जाव परूवेइ–एवं खलु चलमाणे चलिए तं चेव सव्वं जाव णिजरिज्जमाणे अणिज्जिण्णे। [९६] श्रमणों की यह बात सुनने पर जमालि अनगार के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय (निश्चयात्मक विचार) यावत् उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान् महावीर जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि चलमान चलित है, उदीर्यमाण उदीरित है, यावत् निर्जीयमाण निर्जीर्ण है, यह कथन मिथ्या है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष दीख रहा है कि जब तक शय्या-संस्तारक बिछाया जा रहा है, तब तक वह बिछाया गया नहीं है, (अर्थात्-) बिछौना जब तक बिछाया जा रहा हो, तब तक वह बिछाया गया नहीं है। इस कारण चलमान चलित नहीं किन्तु अचलित है, यावत् निर्जीर्यमाण निर्जीर्ण नहीं किन्तु अनिर्जीण है। इस प्रकार विचार कर श्रमण-निर्ग्रन्थों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा—हे देवानुप्रियो! श्रमण भगवान् महावीर जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि चलमान चलित (कहलाता) है, (इत्यादि पूर्ववत् सब कथन करना) यावत् (वस्तुतः) निर्जीर्यमाण निर्जीर्ण नहीं, किन्तु अनिजीर्ण है। विवेचन—जमालि को शय्यासंस्तारक के निमित्त से सिद्धान्त-विरुद्ध स्फुरणा- प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. ९३ से ९६ तक) में निरूपण है कि प्रबलवेदनाग्रस्त जमालि अनगार के आदेश पर श्रमण विछौना बिछाने लगे। अभी बिछाने का कार्य समाप्त नहीं हुआ था, तभी जमालि के पुनः पूछने पर उन्होंने कहा कि
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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