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________________ नवम शतक : उद्देशक- ३३ ५६३ जहा उववाइए' कूणिओ जाव णिग्गच्छइ निग्गच्छित्ता जेणेव माहणकुंडग्गामे नगरे जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता छत्तादीए नित्थगरातिसए पासइ, पासित्ता पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं ठवेइ, ठवित्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ पच्चोरुहइ । [७७] तब औपपातिकसूत्र में वर्णित कूणिक के वर्णनानुसार क्षत्रियकुमार जमालि (दीक्षार्थी के रूप में) हजारों (व्यक्तियों) की नयनावलियों द्वारा देखा जाता हुआ यावत् (क्षत्रियकुण्डग्राम नगर 'बीचोंबीच होकर) निकला। फिर ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर के बाहर बहुशालक नामक उद्यान के निकट आया और ज्यों ही उसने तीर्थंकर भगवान् के छत्र आदि अतिशयों को देखा, त्यों ही हजार पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली उस शिविका को ठहराया और स्वयं उस सहस्रपुरुषवाहिनी शिविका से नीचे उतरा । ७८. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मा- पियरो पुरओ काउं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता, समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं वदासी— एवं खलु भंते ! जमाली खत्तियकुमारे अम्हं एगे पुत्ते इट्ठे कंते जाव किमंग पुण पासणयाए ? से जहानामए उप्पले इ वा पउमे इ वा जाव' सहस्सपत्ते इ वा पंके जाए जले संवुड्ढे गोवलिप्पड़ पंकरएणं णोवलिप्पइ जलरएणं एवामेव जमाली वि खत्तियकुमारे कामेहिं जाए भोगेहिं संवुड्ढे णोवलिप्पइ कामरएणं णोवलिप्पइ भोगरएणं णोवलिप्पड़ मित्त-णाइ - नियग-सयण-संबंधि-परिजणेणं, एस णं देवाणुप्पिया! संसारभडव्विग्गे, भीए जम्मण-मरणेणं देवाणुप्पियाणं अंतिएमुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयइ, तं एयं णं देवाणुप्पियाणं अम्हे सीसभिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! १. औपपातिकसूत्रगत पाठवयणमालासहस्सेहिं अभिथुव्वमाणे अभिथुव्वमाणे, हिययमालासहस्सेहिं अभिनंदिज्जमाणे अभिनंदिज्जमाणे....., मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे विच्छिप्पमाणे..., कंति-रूव-सोहग्गजोव्वणगुणेहिं पत्थिज्जमाणे पत्थिज्जमाणे...., अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइज्जमाणे दाइज्जमाणे, दाहिणहत्थेणं बहूणं नरनारिसहस्साणं अंजलिमालासहस्साइं पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे, भवणभित्तिसहस्साइं समइच्छमाणं समइच्छमाणे, तंती - तल-तालगीयवाइयरवेणं महुरेणं मणहरेणं जय-जय सदुग्घोसमीसएणं... मंजुमंजुणा घोसेण अपडिबुज्झमाणे कंदरगिरिविवरकुहर-गिरिवर- पासादुद्धघणभवण - देवकुल सिंघाडग-तिग- चउक्क- वच्चर- आरामुज्जाण - काणणसभ-प्पवप्पदेसभागे-देसभागे-समइच्छमाणे-कंदर-दरि - कुहर - विवर- गिरि- पायरऽट्टाल - चरिय- दारगोउर- पासायदुवार-भवण-देवकुल-आरामुज्जाण-काणण- सभ - पएसे- पडिसुयासयसहस्ससंकुले - करेमाणे- करेमाणे...., हयहेसिय-हत्थिगुलुगुलाइअ - रहघणघणाइय- सद्दमीसएणं महया कलकलरवेण य जणस्स सुमुहरेणं पूरेंतो अंबरं, समंता सुगंधवरकुसुमचुण्ण- उव्विद्धवासरेणुमइलं णभं करेंते कालागुरु-पवरकुंदुरुक्क - तुरुक्क - धूवनिवहेण जीव लोयं इव वासयंते...., समंतओ खुभियचक्कवालं....., पउरजण - बाल - वुड्डपमुइयतुरियपहावियविउलाउल बोलबहुलं नभं करेंते..... खत्तियकुंडग्गामस्स नयरस्स मज्झंमज्झेणं । - भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४८० - ४८२, औपपातिकसूत्र सू. ३१-३२, पत्र ६८-७५ २. 'जाव' पद सूचि पाठ – कुमुदे इ वा नलिणे इ वा सुभगे इ वा सोगंधिए इ वा इत्यादि । - भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४८३
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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