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________________ ५६२ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जिणवरोवदिङेणं सिद्धिमग्गेणं अकुडिलेणं, हंता परीसहचमुं, अभिभविय गामकंटकोवसग्गा णं, धम्मे तं अविग्घमत्थु। त्ति कट्ट अभिनंदंति य अभिथुणंति य। __ [७६] जब क्षत्रियकुमार जमालि क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के मध्य से होकर जा रहा था, तब श्रृंगाटक, त्रिक, चतुष्क यावत् राजमार्गों पर बहुत-से अर्थार्थी (धनार्थी), कामार्थी इत्यादि लोग, औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार इष्ट, कान्त, प्रिय आदि शब्दों से यावत् अभिनंदन एवं स्तुति करते हुए इस प्रकार कहने लगे—हे नन्द (आनन्ददाता)! धर्म द्वारा तुम्हारी जय हो। हे नन्द ! तप के द्वारा तुम्हारी जय हो! हे नन्द! तुम्हारा भद्र (कल्याण) हो ! हे देव! अखण्ड-उत्तम-ज्ञान-दर्शन-चारित्र द्वारा (अब तक) अविजित इन्द्रियों को जीतो और विजित श्रमणधर्म का पालन करो। हे देव! विघ्नों को जीतकर सिद्धि (मुक्ति) में जाकर बसो! तप से धैर्य रूपी कच्छ को अत्यन्त दृढ़तापूर्वक बांधकर राग-द्वेष रूपी मल्लों को पछाड़ो! उत्तम शुक्लध्यान के द्वारा अष्टकर्मशत्रुओं का मर्दन करो! हे धीर! अप्रमत्त होकर त्रैलोक्य के रंगमंच (विश्वमण्डप) में आराधनारूपी पताका ग्रहण करो (अथवा फहरा दो) और अन्धकार रहित (विशुद्ध प्रकाशमय) अनुत्तर केवलज्ञान को प्राप्त करो! तथा जिनवरोपदिष्ट सरल (अकुटिल) सिद्धिमार्ग पर चलकर परमपदरूप मोक्ष को प्राप्त करो! परीषहसेना को नष्ट करो तथा इन्द्रियग्राम के कण्टकरूप (प्रतिकूल) उपसर्गों पर विजय प्राप्त करो! तुम्हारा धर्माचरण निर्विघ्न हो! इस प्रकार से लोग अभिनन्दन एवं स्तुति करने लगे। विवेचन—विविध जनों द्वारा जमालिकुमार को आशीर्वाद, अभिनन्दन एवं स्तुति—प्रस्तुत सू. ७६ में निरूपण है कि क्षत्रियकुण्ड से ब्राह्मणकुण्ड जाते हुए जमालिकुमार को मार्ग में बहुत-से धनार्थी, कामार्थी, भोगार्थी, कापालिक, भाण्ड, मागध, भाट आदि ने विविध प्रकार से अपने उद्देश्य में सफल होने का आशीर्वाद दिया। उसका अभिनन्दन एवं स्तवन किया।' विशेषार्थ-अजियाइं जिणाहि-नहीं जीती हुई (इन्द्रियों) को जीतो। अभग्गेहिं—अखण्ड। णिहणाहि-नष्ट करो। णंदा धम्मेण-धर्म से बढो। णंदा-जगत् को आनन्द देने वाले। धितिधणियबद्धकच्छे-धैर्यरूपी कच्छे को दृढ़ता से बांधकर ।मद्दाहि-मर्दन करो। हराहि-दो अर्थ(१) ग्रहण करो, (२) फहरा दो। तिलोक्करंगमज्झे—त्रिलोकरूपी रंगमंडप में। पावय-प्राप्त करो। परिसहचमुं—परीषहरूपी सेना को ।अभिभविय गामकंटकोवसग्गा—इन्द्रियग्रामों के कंटकरूप प्रतिकूल उपसर्गों को हरा कर । अविग्धमत्थु—निर्विघ्न हो।२ ७७. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे नयणमालासहस्सेहिं पिच्छिज्जमाणे पिच्छिज्जमाणे एवं १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १, पृ. ४७२-४७३ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४८१-४८२
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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