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________________ नवम शतक : उद्देशक-३३ ५४३ के स्थानरूप होने से दुःखरूप हैं और बहु-जनसमुदाय के लिए भोग्यरूप से साधारण हैं, ये अत्यन्त मानसिक क्लेश से तथा गाढ़ शारीरिक कष्ट से साध्य हैं। ये अज्ञानी जनों द्वारा ही सेवित हैं, साधु पुरुषों द्वारा सदैव निन्दनीय (गर्हणीय) हैं, अनन्त संसार की वृद्धि करने वाले हैं, परिणाम में कटु फल वाले हैं, जलते हुए घास के पूले की आग के समान (एक वार लग जाने के बाद) कठिनता से छूटने वाले तथा दुखानुबन्धी हैं, सिद्धि (मुक्ति) गमन में विघ्नरूप हैं । अत: हे माता-पिता! यह भी कौन जानता है कि हममें से कौन पहले जाएगा, कौन पीछे ? इसलिए हे माता-पिता! आपकी आज्ञा प्राप्त होने पर मैं दीक्षा लेना चाहता हूँ। विवेचन-काम-भोगों से विरक्ति-सम्बन्धी उद्गार—जमालि ने प्रस्तुत सूत्र में काम-भोगों की बीभत्सता, परिणाम में दुःखजनकता, संसारपरिवर्धकता बताई है। कठिन शब्दों का भावार्थ-पूइयपुरीसपुण्णा-मवाद अथवा दुर्गन्धित विष्ठा से भरपूर हैं। मयगंधुस्सास-असुभनिस्सासा-उव्वेयणगा-मृतक सी गन्ध वाले उच्छ्वास और अशुभ नि:श्वास से उद्वेगजनक हैं। लहुसगा-लघु-हलकी कोटि के हैं। कलमलाहिवासदुक्खबहुजणसाहारणा–शरीरस्थ अशुभ द्रव्य के रहने से दुःखद हैं और सर्वजनसाधारण हैं। परिकिलेस-किच्छदुक्खसज्झा- परिक्लेशमानसिक-क्लेश तथा गाढ़ शारीरिक दुःख से साध्य हैं । चुडिल व्व अमुच्चमाण-घास के प्रज्वलित पूले के समान बहुत कष्ट से छूटने वाले हैं। दुक्खाणुबंधिणो—परम्परा से दुःखदायक हैं। 'कामभोग' शब्द का आशय यहाँ 'काम-भोग' शब्द से उनके आधारभूत स्त्रीपुरुषों के शरीर का ग्रहण करना अभिप्रेत है।' ४१. तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो एवं वयासी—इमे य ते जाया ! अजयपज्जय-पिउपज्जयागए सुबहुहिरण्णे य सुवण्णे य कंसे य दूसे य विउलधणकणग. जाव' संतसारसावएज्जे अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दातुं, पकामं भोत्तुं, पकामं परिभाएउं, तं अणुहोहि ताव जाया! विउले माणुस्सए इड्डिसक्कारसमुदए, तओ पच्छा अणुहूयकल्लाणे वड्डियकुलवंसतंतु जाव पव्वइहिसि। [४१] तदनन्तर क्षत्रियकुमार जमालि से उसके माता-पिता ने इस प्रकार कहा—हे पुत्र! तेरे पितामह, प्रपितामह और पिता के प्रपितामह से प्राप्त यह बहुत-सा हिरण्य, सुवर्ण, कांस्य, उत्तम वस्त्र (दूष्य), विपुल धन, कनक यावत् सारभूत द्रव्य विद्यमान है। यह द्रव्य इतना है कि सात पीढ़ी (कुलवंश) तक प्रचुर (मुक्त हस्त से) दान दिया जाए, पुष्कल भोगा जाय और बहुत-सा बांटा जाय तो भी पर्याप्त है (समाप्त नहीं हो सकता)। अत: हे पुत्र! मनुष्य सम्बन्धी इस विपुल ऋद्धि और सत्कार (सत्कार्य) समुदाय का अनुभव कर। १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ टिप्पण) भा. १, पृ. ४६२ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४७० ३. वही, पत्र ४७०, इह कामभोगग्रहणेन तदाधारभूतानि स्त्रीपुरुषशरीराण्यभिप्रेतानि।' ४. 'जाव' पद सूचित पाठ—"रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयणमाइए।" .
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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