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नवम शतक : उद्देशक- ३३
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नष्ट होने से शरीर भारी हो गया। सुकुमाल - विकिण्ण-केसहत्था — उसकी कोमल केशराशि बिखर गई। परसु-णियत्तव्व चंपगलता — कुल्हाड़ी से काटी हुई चंपा की बेल की तरह । निव्वत्तमहे व्व इंदलट्ठीमहोत्सव पूर्ण होने के बाद के इन्द्रध्वज (दंड) के समान । विमुक्कसंधिबंधणा —शरीर के संधिबन्धन ढीले हो गए। कोट्टिमतलंसि — आंगन (कुट्टिम) के तल (फर्श) पर। माता-पिता के साथ विरक्त जमालि का संलाप
३५. तए णं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया ससंभमोयत्तियाए तुरियं कंचणभिंगारमुहविणिग्गयसीयलजलविमलधारापसिच्चमाणनिव्ववियगायलट्ठी उक्केवगतालियंटवीयणगजणियhari सफुसणं अंतेउरपरिजणेणं आसासिया समाणी रोयमाणी कंदमाणी सोयमाणी विलवमाणी
मालि खत्तियकुमारं एवं वयासी - तुम सि णं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते इट्ठे कंते पिए मणुण्णे मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणब्भूए जीवियऊसविये हिययनंदिजणणे उंबरपुप्फं पिव दुल्लभे सवणयाए किमंग पुण पासणयाए ? तं नो खलु जाया ! अम्हे इच्छामो तुब्भं खणमवि विप्पओगं, तं अच्छाहि ताव जाया! जाव ताव अम्हे जीवामो, तओ पच्छा अम्हेहि कालगएहिं समाणेहिं परिणयवये वड्ढियकुलवंसतंतुकज्जम्मि निरवयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिसि ।
[३५] इसके पश्चात् क्षत्रियकुमार जमालि की व्याकुलतापूर्वक इधर-उधर गिरती हुई माता के शरीर पर शीघ्र ही दासियों ने स्वर्णकलशों के मुख से निकली हुई शीतल एवं निर्मल जलधारा का सिंचन करके शरीर को स्वस्थ किया। फिर (बांस के बने हुए) उत्क्षेपकों (पंखों तथा ताड़ के पत्तों से बने पंखों से जलकणों (फुहारों) सहित हवा की। तदनन्तर (मूर्च्छा दूर होते ही) अन्तःपुर के परिजनों ने उसे आश्वस्त किया । (मूर्च्छा दूर होते ही) रोती हुई, क्रन्दन करती हुई, शोक करती हुई, एवं विलाप करती हुई माता क्षत्रियकुमार जमालि से इस प्रकार कहने लगी- पुत्र ! तू हमारा इकलौता पुत्र है, (इसलिए) तू हमें इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है, मनसुहाता है, आधारभूत है विश्वासपात्र है, (इस कारण ) तू सम्मत, अनुमत और बहुमत है। तू आभूषणों के पिटारे (करण्डक) के समान है, रत्नस्वरूप है, रत्नतुल्य है, जीवन या जीवितोत्सव के समान है, हृदय को आनन्द देने वाला है, उदुम्बर ( गूलर) के फूल के समान तेरा नाम-श्रवण भी दुर्लभ है, तो तेरा दर्शन दुर्लभ हो, इसमें कहना ही क्या ! इसलिए हे पुत्र ! हम तेरा क्षण भर का वियोग भी नहीं चाहते। इसलिए जब तक हम जीवित रहें, तब तक तू घर में ही रह । उसके पश्चात् जब हम (दोनों) कालधर्म को प्राप्त (परलोकवासी) हो जाएं, तेरी उम्र भी परिपक्व हो जाए, (और तब तक) कुलवंश की वृद्धि का कार्य हो जाए, ,तब (गृह-प्रयोजनों से) निरपेक्ष होकर तू गृहवास का त्याग करके श्रमण भगवान् महावीर के पास मुण्डित होकर अनगारधर्म में प्रव्रजित होना ।
विवेचन — माता की मूर्च्छा दूर होने पर जमालि के प्रति उद्गार — प्रस्तुत सूत्र में यह वर्णन है कि
१. भगवती. भा. ४ ( पं. घेवरचन्दजी) पृ. १७१६ - १७१७