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________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ५३४ तथ्य है, सत्य (अवितथ) है, भगवन् ! यह असंदिग्ध है, यावत् जैसा कि आप कहते हैं । किन्तु हे देवानुप्रिय ! (प्रभो!) मैं अपने माता-पिता को (घर जाकर ) पूछता हूँ और उनकी अनुज्ञा लेकर (गृहवास का परित्याग करके) आप देवानुप्रिय के समीप मुण्डित हो कर अगारधर्म से अनगारधर्म में प्रव्रजित होना चाहता हूँ । (भगवान् ने कहा-) देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो।' विवेचन — जमालि द्वारा प्रवचन - श्रवण, श्रद्धा और प्रव्रज्यासंकल्प — प्रस्तुत दो सूत्रों (२९-३० सू.) में वर्णन है कि जमालि भगवदुपदेश सुन कर अत्यन्त प्रभावित हुआ, उसे संसार से विरक्ति हो गई। उसने विनयपूर्वक अत्यन्त श्रद्धा-भक्ति के साथ अनगारधर्म में दीक्षित होने की अभिलाषा व्यक्त की। भगवान् ने उसकी बात सुन कर इच्छानुसार कार्य करने का परामर्श दिया। अब्भुट्ठेम आदि पदों का भावार्थ – अब्भुट्ठेमि—मैं अभ्युद्यत (तत्पर) हूँ । अवितहं—अवितथसत्य । तहमेयं—यह तथ्य यथार्थ । असंदिद्धं—संदेहरहित है । 'श्रद्धा' आदि पदों का भावार्थ — श्रद्धा — तर्करहित विश्वास, प्रतीति — तर्क और युक्तिपूर्वक विश्वास, रुचि — श्रद्धा के अनुसार चलने की इच्छा। अभ्युत्थानेच्छा — निर्ग्रथ - प्रवचनानुसार प्रवृत्ति के लिए उद्यत होने की इच्छा । २ माता-पिता से दीक्षा की अनुज्ञा का अनुरोध ३१. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्ट समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता तमेव चाउघंटं आसरहं दुरूहेइ, दुरूहित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ बहुसालाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सकोरंट जाव धरिज्जमाणेणं महया भडचडगर० जाव परिक्खित्ते जेणेव खत्तियकुंडग्गामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता खत्तियकुंडग्गामं नगरं मज्झंमज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता तुरए निगिण्हिइ, तुरए निगिण्हित्ता रहं ठवेइ, रहं ठवेत्ता रहाओ पच्चोरुहइ, रहाओ पच्चोरुहित्ता जेणेव अब्भितरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव अम्मा-पियरो तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता अम्मा-पियरो जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावेत्ता एवं वयासीएवं खलु अम्म ! ताओ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मे निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए । [३१] जब श्रमण भगवान् महावीर ने जमालि क्षत्रियकुमार से इस (पूर्वोक्त) प्रकार से कहा तो वह हर्षित और सन्तुष्ट हुआ। उसने श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा करके यावत् नमस्कार किया। फिर उस चार घंटा वाले अश्वरथ पर आरूढ हुआ और रथारूढ हो कर श्रमण भगवान् महावीर के पास से, १. वियाहप. ( मू. पा. टि.), भा. १, पृ. ४५८-४५९ २. भगवती अ. वृत्ति, पत्र १७१२, १७१५
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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