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________________ नवम शतक : उद्देशक-३३ ५३३ क्षत्रियकुमार जमालि ने जनता के मुख से नगर के स्थान-स्थान पर चर्चा सुनी। उसके मन में जानने की उत्सुकता पैदा हुई। कंचुकी से पूछने पर पता चला कि भगवान् महावीर ब्राह्मणकुण्डग्राम में पधारे हैं । जमालि ने सेवकों को बुला कर धर्मरथ तैयार करने का आदेश दिया। रथ पर आरूढ़ होकर बड़े ठाठबाठ से क्षत्रियकुण्डग्राम से ब्राह्मणकुण्डग्राम के बाहर भगवान् महावीर के पास आया और वन्दना-पर्युपासना करने लगा। कठिन शब्दों के अर्थ-सिंघाडग– सिंघाड़े के आकार का मार्ग। तिय–तिराहा। चउक्कचौक या चौराहा। चच्चर-चत्वर, चार से अधिक रास्ते जहाँ से निकलें, वह स्थान । चाउघंट-चार घण्टों वाला। खंधमहे- स्कन्ध-महोत्सव। आगमण-गहियाविणिच्छए—आगमन की जानकारी का निश्चय करके। चंदणोक्खित्तगायसरीरे—शरीर पर चन्दन लेपन किया हुआ। सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणंकोरण्टपुष्प की माला युक्त छत्र को। जमालि द्वारा प्रवचन-श्रवण और श्रद्धा तथा प्रव्रज्या की अभिव्यक्ति २९. तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स खत्तियकुमारस्स तीसे य महतिमहालियाए इसि० जाव धम्मकहा जाव परिसा पडिगया। [२९] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीरस्वामी ने उस क्षत्रियकुमार जमालि तथा उस बहुत बड़ी ऋषिगण आदि की परिषद् को यावत् धर्मोपदेश दिया। धर्मोपदेश सुन कर यावत् परिषद वापस लौट गई। ३०. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ट जाव उढेइ, उट्ठाए उठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं वयासीसदहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, रोएमिण भंते! निग्गंथं पावयणं, अब्भुढेमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! जाव से जहेवं तुब्भे वदह, जं नवरं देवाणुप्पिया ! अम्मा-पियरो आपुच्छामि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता अग़ाराओ अणगारियं पव्वयामि।अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं। [३०] तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर के पास से धर्म सुन कर और उसे हृदयंगम करके हर्षित और सन्तुष्ट क्षत्रियकुमार जमालि यावत् उठा और खड़े होकर उसने श्रमण भगवान् महावीर-स्वामी को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की यावत् वन्दन-नमन किया और इस प्रकार कहा—'भगवन्! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर प्रतीति (विश्वास) करता हूँ। भन्ते ! निर्ग्रन्थ-प्रवचन में मेरी रुचि है। भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन के अनुसार चलने के लिए अभ्युद्यत हुआ हूँ। भन्ते! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन १. वियाहपण्णत्ति (मू. पा. टि.), भा. १, पृ. ४५६-४५८ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४६२-४६३
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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