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________________ नवम शतक : उद्देशक- ३२ ५०३ शंका-समाधान— मूलपाठ में एक जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न होता है, यह बताया गया, किन्तु सिद्धान्तानुसार एक जीव एकेन्द्रियों में कदापि उत्पन्न नहीं होता, वहाँ (वनस्पतिकाय की अपेक्षा तो) प्रतिसमय अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं, ऐसी स्थिति में उपर्युक्त शास्त्रवचन के साथ कैसे संगति हो सकती है ? इसका समाधान वृत्तिकार यों करते हैं—विजातीय देवादि भव से निकल कर जो वहाँ (एकेन्द्रिय भव) में उत्पन्न होता है, उस एक जीव की अपेक्षा से एकेन्द्रिय में एक जीव का प्रवेशनक सम्भव है। वास्तव में प्रवेशनक का अर्थ ही यह है कि विजातीय देवादि भव से निकलकर विजातीय भव से उत्पन्न होना । सजातीय जीव सजातीय में उत्पन्न हो, वह प्रवेशनक नहीं कहलाता, क्योंकि वह (सजातीय) तो एकेन्द्रिय जाति सजातीय में प्रविष्ट है ही । अर्थात् एकेन्द्रिय जीव मर कर एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो, वह प्रवेशनक की कोटि में नहीं आता। और जो अनन्त उत्पन्न होते हैं, वे तो एकेन्द्रिय में से ही हैं। उत्कृष्ट तिर्यञ्चयोनिक- प्रवेशनक प्ररूपणा ३३. उक्कोसा भंते ! तिरिक्खजोणिया० पुच्छा । गंगेया ! सव्वे वि ताव एगेंदिएसु वा होज्जा । अहवा एगिंदिएसु वा बेइंदिएसु वा होज्जा । एवं जहा नेरतिया चारिया तहा तिरिक्खजोणिया वि चारेयव्वा । एगिंदिया अमुयंतेसु दुयासंजोगो तियासंजोगो चउक्कसंजोगो पंचसंजोगो उवउज्जिऊण भाणियव्वो जाव अहवा एगिंदिएसु वा बेइंदिय जाव पंचिंदिसु वा होज्जा । [३३ प्र.] भगवन्! उत्कृष्ट तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक के विषय में पृच्छा । [३३ उ.] गांगेय ! ये सभी एकेन्द्रियों में होते हैं । अथवा एकेन्द्रिय और द्वीन्द्रियों में होते हैं । जिस प्रकार नैरयिक जीवों में संचार किया गया है, उसी प्रकार तिर्यञ्चयोनिक- प्रवेशनक के विषय में भी संचार करना चाहिए। एकेन्द्रिय जीवों को न छोड़ते हुए द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी, चतु:संयोगी और पंचसंयोगी भंग उपयोगपूर्वक कहने चाहिए, यावत् अथवा एकेन्द्रिय जीवों में द्वीन्द्रियों में, यावत् पंचेन्द्रियों में होते हैं । विवेचन — एकेन्द्रियों में उत्कृष्टपद - प्रवेशनक— एकेन्द्रिय जीव प्रतिसमय अत्यधिक संख्या में उत्पन्न होते हैं, इसलिए एकेन्द्रियों में ये सभी होते हैं। द्विकसंयोगी से पंचसंयोगी तक भंग —— प्रसंगवश यहाँ उत्कृष्टपद से द्विकसंयोगी चार प्रकार के, त्रिकसंयोगी छह प्रकार के, चतु:संयोगी चार प्रकार के और पंचसंयोगी एक ही प्रकार के होते हैं । एकेन्द्रियादि तिर्यञ्चप्रवेशनकों का अल्पबहुत्व ३४. एयस्स णं भंते ! एगिंदियतिरिक्खजोणियपवेसणगस्स जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिय १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४५१ २. वही, अ. वृत्ति, पत्र ४५१ ३. वही, अ. वृत्ति, पत्र ४५१
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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