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________________ ४८८ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अहवा एगे रयणप्पभाए, छ सक्करप्पभाए होज्जा, एवं एएणं कमेणं जहा छण्हं दुयासंजोगो तहा सत्तण्ह वि भाणियव्वं नवरं एगो अब्भहिओ संचारिज्जइ। सेसं तं चेव। तियासंजोगो, चउक्कसंजोगो, पंचसंजोगो, छक्कसंजोगो य छण्हं जहा तहा सत्तण्ह वि भाणियव्वो, नवरं एक्केको अब्भहिओ संचारेयव्वो जाव छक्कगसंजोगो। अहवा दो सक्कर० एगे वालुय० जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा १।१७१६ । [२२ प्र.] भगवन्! सात नैरयिक जीव, नैरयिक-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न। [२२ उ.] गांगेय! वे सातों नैरयिक रत्नप्रभा में होते हैं, यावत् अथवा अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। (इस प्रकार असंयोगी ७ भंग होते हैं।) (द्विकसंयोगी १२६ भंग) अथवा एक रत्नप्रभा में और छह शर्कराप्रभा में होते हैं। इस क्रम से जिस प्रकार छह नैरयिक जीवों के द्विकसंयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार सात नैरयिक जीवों के भी द्विकसंयोगी भंग कहने चाहिए। इतना विशेष है कि यहाँ एक नैरयिक का अधिक संचार करना चाहिए। शेष सभी पूर्ववत् जानना चाहिए। जिस प्रकार छह नैरयिकों के त्रिकसंयोगी, चतुःसंयोगी, पंचसंयोगी और षटसंयोगी भंग कहे, उसी प्रकार सात नैरयिकों के त्रिकसंयोगी आदि भंगों के विषय में भी कहना चाहिए। विशेषता इतनी है कि यहाँ एक-एक नैरयिक जीव का अधिक संचार करना चाहिए। यावत् —षसंयोगी का अन्तिम भंग इस प्रकार कहना चाहिए—अथवा दो शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में, यावत् एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (यहाँ तक जानना चाहिए।) सप्तसंयोगी एक भंग—अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में यावत् एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। विवेचन सात नैरयिकों के असंयोगी ७ भंग-नरक सात है, प्रत्येक नरक में सातों नैरयिक प्रवेश करते हैं, इसलिए ७ भंग हुए। द्विकसंयोगी १२६ भंग-द्विकसंयोगी ६ विकल्प होते हैं, यथा—१-६, २-५, ३-४, ४-३,५-२, ६-१ । इन ६ विकल्पों के साथ रत्नप्रभादि के संयोग से जनित २१ भंग का गुणाकार करने से १२६ भंग द्विकसंयोगी होते हैं। त्रिकसंयोगी ५२५ भंग–सात नैरयिकों के त्रिकसंयोगी १५ विकल्प होते हैं । यथा—१-१-५,१२-४, २-१-४, १-३-३, २-२-३, ३-१-३, १-४-२, २-३-२, ३-२-२, ४-१-२, १-५-१, २-४-१, ३-३-१,४-२-१ और ५-१-१।
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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