SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 485
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५४ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समुप्पज्जति। [२६] वह अवधिज्ञानी बढ़ते हुए प्रशस्त अध्यवसायों से अनन्त नैरयिकभव-ग्रहणों से अपनी आत्मा को विसंयुक्त (-विमुक्त) कर लेता है, अनन्त तिर्यञ्चयोनिक भवों से अपनी आत्मा को विसंयुक्त कर लेता है, अनन्त मनुष्यभव-ग्रहणों से अपनी आत्मा को विसंयुक्त कर लेता है और अनन्त देवभवों से अपनी आत्मा को वियुक्त कर लेता है। जो ये नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति नामक चार उत्तर (कर्म-) प्रकृतियाँ हैं, उन प्रकृतियों के आधारभूत (उपगृहीत) अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ का क्षय करके अप्रत्याख्यानकषाय-क्रोध-मान-माया-लोभ का क्षय करता है, अप्रत्याख्यान क्रोधादि कषाय का क्षय करके प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है, प्रत्याख्यानावरण क्रोधादिकषाय का क्षय करके संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है। संज्वलन के क्रोध-मान-माया-लोभ का क्षय करके पंचविध (पांच प्रकार के) ज्ञानावरणीयकर्म, नवविध (नौ प्रकार के) दर्शनावरणीयकर्म, पंचविध अन्तरायकर्म को तथा मोहनीयकर्म को कटे हुए ताड़वृक्ष के समान बना कर, कर्मरज को बिखेरने वाले अपूर्वकरण में प्रविष्ट उस जीव के अनन्त, अनुत्तर, व्याघातरहित, आवरणरहित, कृत्स्न (सम्पूर्ण), प्रतिपूर्ण एवं श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन (एक साथ) उत्पन्न होता है। विवेचन—चारित्रात्मा अवधिज्ञानी के प्रशस्त अध्यवसायों का प्रभाव प्रस्तुत में केवलज्ञानप्राप्ति का क्रम बताया गया है कि सर्वप्रथम प्रशस्त अध्यवसायों के प्रभाव से नरकादि चारों गतियों के भविष्यकालभावी अनन्त भवों से अपनी आत्मा को वियुक्त कर लेता है, फिर गतिनामकर्म की चारों नरकादि गतिरूप उत्तरकर्मप्रकृतियों के कारणभूत अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी एवं संज्वलन कषाय का क्षय कर लेता है। कषायों का सर्वथा क्षय होते ही ज्ञानावरणीयादि चार घातिक कर्मों का क्षय कर लेता है। इन चारों के क्षय होते ही अनन्त, अव्याघात परिपूर्ण, निरावरण केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त हो जाता है। ___मोहनीयकर्म का नाश, शेष घाति कर्मनाश का कारण प्रस्तुत सूत्र में ज्ञानावरणीयादि तीनों कर्मों का उत्तरप्रकृतियों सहित क्षय पहले बताया है, किन्तु मोहनीयकर्म के क्षय हुए बिना इन तीनों कर्मों का क्षय नहीं होता। इसी तथ्य को प्रकट करने के लिए यहाँ कहा गया है—'तालमत्थकडं च णं मोहणिज्जं कटु', इसका भावार्थ यह है कि जिस प्रकार ताड़वृक्ष का मस्तक सूचि भेद (सूई से या सूई की तरह छिन्न १. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूल टिप्पण) भा. १, पृ. ४१६ (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४३५ २. यथा हि तालमस्तकविनाशक्रियाऽवश्यम्भावि-तालविनाश एवं मोहनीयकर्मविनाशक्रियाऽवश्यम्भाविशेषकर्म विनाशेति । आह च मस्तकसूचिविनाशे, तालस्य यथा ध्रुवो भवति नाशः। तद्वत् कर्मविनाशोऽपि मोहनीयक्षये नित्यम्॥१॥ -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४३६
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy