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नवम शतक : उद्देशक-३१
तिसु.....णाणेसु होज्ज-विभंगज्ञानी को सम्यक्त्व प्राप्त होते ही उसके मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान, ये तीनों अज्ञान, (मति-श्रुतावधि-) ज्ञानरूप में परिणत हो जाते हैं।
णो अजोगी होज्ज–अवधिज्ञानी को अवधिज्ञान काल में अयोगी-अवस्था प्राप्त नहीं होती।
सागारोवउत्ते वा-विभंगज्ञान से निवृत्त होने वाला अवधिज्ञानी, दोनों उपयोगों में से किसी भी एक उपयोग में प्रवृत्त होता है।
साकारोपयोग एवं अनाकारोपयोग का अर्थ—साकारोपयोग अर्थात् ज्ञान और अनाकारोपयोग अर्थात् ज्ञानोपयोग से पूर्व होने वाला दर्शन (निराकार ज्ञान)।
वज्रऋषभनाराच-संहनन ही क्यों ?—यहाँ जो अवधिज्ञानी के लिए वज्रऋषभनाराचसंहनन का कथन किया गया है, वह आगे प्राप्त होने वाले केवलज्ञान की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि केवलज्ञान की प्राप्ति वज्रऋषभनाराच-संहनन वालों को ही होती है।
__सवेदी आदि का तात्पर्य—विभंगज्ञान से अवधिज्ञान काल से साधक सवेदी होता है, क्योंकि उस दशा में उसके वेद का क्षय नहीं होता। विभंगज्ञान से अवधिज्ञान प्राप्त करने की जो प्रक्रिया है, उस प्रक्रिया का स्त्री में स्वभावतः अभाव होता है। अतः सवेदी में वह पुरुषवेदी एवं कृत्रिमनपुंसकवेदी होता है।
सकसाई होज्जा-विभंगज्ञान एवं अवधिज्ञान के काल में कषायक्षय नहीं होता, किन्तु संज्वलनकषाय होता है, क्योंकि विभंगज्ञान के अवधिज्ञान में परिणत होने पर वह अवधिज्ञानी साधक जब चारित्र अंगीकार कर लेता है, तब उसमें संज्वलन के ही क्रोधादि चार कषाय होते हैं।
प्रशस्त अध्यवसायस्थान ही क्यों?—विभंगज्ञान से अवधिज्ञान की प्राप्ति अप्रशस्त अध्यवसाय वाले को नहीं होती, इसलिए अवधिज्ञानी में प्रशस्त अध्यवसायस्थान ही होते हैं। उक्त अवधिज्ञानी को केवलज्ञान-प्राप्ति का क्रम
२६.से णं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं वट्टमाणे अणंतेहिं नेरइयभवग्गहणेहितो अप्पाणं विसंजोइए, अणंतेहिं तिरिक्खजोणिय जाव विसंजोइए, अणंतेहिं मणुस्सभवग्गहणेहिंतो अप्पाणं विसंजोइए, अणंतेहिं देवभवग्गहणेहिंतो अप्पाणं विसंजोइए, जाओ वि य से इमाओ नेरइए-तिरिक्ख-जोणियमणुस्स-देवगतिनामाओ उत्तरपयडीओ तासिं च णं उवग्गहिए अणंताणुबंधी कोह-माण-मायालोभे खवेइ, अणंताणुबंधी कोह-माण-माया-लोभे खवित्ता अपच्चक्खाणकसाए कोह-माणमाया-लोभे खवेइ, अपच्चक्खाणकसाए कोह-माण-माया-लोभे खवित्ता पच्चक्खाणावरणे कोहमाण-माया-लोभे खवेइ, पच्चक्खाणावरणे कोह-माण-माया-लोभे खवित्ता संजलणे कोह-माणमाया-लोभे खवेइ। संजलणे कोह-माण-माया-लोभे खविता पंचविहं नाणावरणिज्जं नवविहं दरिसणावरणिज्जं पंचविहमंतराइयंतालमत्थकडंचणं मोहणिज्जंकट्ट कम्मरयविकरणकरंअपुव्वकरणं अणुपविट्ठस्स अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाण-दसणे