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नवम शतक : उद्देशक-३१ अगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा, अत्थेगइए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं नो पव्वएज्जा।
[४-१ प्र.] भगवन् ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक-उपासिका से सुने बिना ही क्या कोई जीव केवल मुण्डित होकर अगारवास त्याग कर अनगारधर्म में प्रव्रजित हो सकता है ?
___ [४-१ उ.] गौतम! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक-उपासिका से सुने बिना ही कोई जीव मुण्डित होकर अगारवास छोड़कर शुद्ध या सम्पूर्ण अनागरिता में प्रव्रजित हो पाता है और कोई प्रव्रजित नहीं हो पाता
[२]से केणट्टेणं जावं नो पव्वएज्जा?
गोयमा ! जस्स णं धम्मंतराइयाणं खओवसमे कडे भवति से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा, जस्स णं धम्मंतराइयाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवति से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव मुंडे भवित्ता जाव णो पव्वएज्जा, से तेणढेणं गोयमा ! जाव नो पव्वएज्जा। .. [४-२ प्र.] भगवन् ! किस कारण से यावत् कोई जीव प्रव्रजित नहीं हो पाता?
. [४-२ उ.] गौतम ! जिस जीव के धर्मान्तरायिक कर्मों का क्षयोपशम किया हुआ है, वह जीव केवली आदि से सुने बिना ही मुण्डित होकर अगारवास से अनागारधर्म में प्रव्रजित हो जाता है, किन्तु जिस जीव के धर्मान्तरायिक कर्मों का क्षयोपशम नहीं हुआ है, वह मुण्डित होकर अगारवास से अनगारधर्म में प्रव्रजित नहीं हो पाता। इसी कारण से हे गौतम ! यह कहा गया है कि यावत् वह (कोई जीव) प्रव्रज्या ग्रहण नहीं कर पाता।
विवेचन केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा : भावार्थ-मुण्डित होकर गृहवासत्याग करके शुद्ध या सम्पूर्ण अनगारिता में प्रव्रजित हो पाता है, अर्थात् अनागारधर्म में दीक्षित हो पाता
धम्मंतराइयाणं कम्माणं-धर्म में अर्थात्—चारित्र अंगीकाररूप धर्म में अन्तराय-विघ्न डालने वाले कर्म धर्मान्तरायिककर्म अर्थात्-वीर्यान्तराय एवं विविध चारित्रमोहनीय कर्म। केवली आदि से ब्रह्मचर्य-वास का धारण-अधारण
५. [१] असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा?
गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगइए केवलं बंभचेरवासं १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४३३ २. वही, पत्र ४३३