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तइओ उद्देसओ : 'महासव' तृतीय उद्देशक : 'महाश्रव'
तृतीय उद्देशक की संग्रहणी गाथाएँ
१. बहुकम्म १ वत्थपोग्गल पयोगसा वीससा य २ सादीए ३ |
कम्मट्ठति थि ४-५ संजय ६ सम्मद्दिट्ठी ७ य सण्णीच्य ॥ १ ॥
भविए ९ दंसण १० पज्जत्त ११ भासय १२ परित्त १३ नाण १४ जोगे १५ य । उवओगा-ऽऽहारग १६-१७ सुहुम १८ चरिम बंधे १९ य, अप्पबहुं २० ॥ २ ॥
[१] १. बहुकर्म, २. वस्त्र में प्रयोग से और स्वाभाविक रूप से (विश्रसा) पुद्गल, ३. सादि (आदि सहित), ४. कर्मस्थिति, ५. स्त्री, ६. संयत, ७ सम्यग्दृष्टि, ८ संज्ञी, ९. भव्य, १० दर्शन, ११. पर्याप्त, १२. भाषक, १३. परित्त, १४. ज्ञान, १५. योग, १६. उपयोग, १७. आहारक, १८. सूक्ष्म, १९. चरम-बंध और २०. अल्पबहुत्व, (इन बीस विषयों का वर्णन इस उद्देशक में किया गया है ।) प्रथमद्वार-महाकर्मा और अल्पकर्मा जीव के पुद्गल - बन्ध-भेदादि का दृष्टान्तद्वयपूर्वक निरूपण
२. [१] से नूणं भंते ! महाकम्मस्स महाकिरियस्स महासवस्स महावेदणस्स सव्वओ पोग्गला बज्झति, सव्वओ पोग्गला चिज्जंति, सव्वओ पोग्गला उवचिज्जंति, सया समितं च णं पोग्गला बज्झंति, सया समितं पोग्गला चिज्जंति, सया समितं पोग्गला उवचिज्जंति, सया समितं च णं तस्स आया दुरुवत्ताए दुवण्णत्ताए दुगंधत्ताए दुरसत्ताए दुफासत्ताए अणिट्ठत्ताए अकंतत्ताए अप्पियत्ताए असुभत्ताए अमणुण्णत्ताए अमणामत्ताए अणिच्छियत्ताए अभिज्झियत्ताए, अहत्ताए, नो उड्डत्ताए, दुक्खत्ताए, नो सुहत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमइ ?
हंता, गोयमा ! महाकम्मस्स तं चेव ।
[२-१ प्र.] भगवन् ! क्या निश्चय ही महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महाश्रव वाले और महावेदना वाले जीव के सर्वत: (सब दिशाओं से, अथवा सभी ओर से और सभी प्रकार से ) पुद्गलों का बन्ध होता है ? सर्वत: (सब ओर से) पुद्गलों का चय होता है ? सर्वत: पुद्गलों का उपचय होता है? सदा सतत पुद्गलों का बन्ध होता है सदा सतत पुद्गलों का चय होता है ? सदा सतत पुद्गलों का उपचय होता है ? क्या सदा निरन्तर उसका आत्मा (सशरीर जीव) दुरूपता में, दुर्वर्णता में, दुर्गन्धता में, दु:रसता में, दुःस्पर्शता में, अनिष्टता (इच्छा से विपरीतरूप) में, अकान्तता (असुन्दरता), अप्रियता, अशुभता (अमंगलता) अमनोज्ञता और अमनोगमता (मन से अस्मरणीय रूप) में, अनिच्छनीयता (अनीप्सित रूप ) में, अनभिध्यितता ( प्राप्त करने हेतु अलोभता)