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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [३० प्र.] भगवन् ! एक-एक जीव के कितने-कितने जीवप्रदेश कहे गए हैं ?
[३० उ.] गौतम! लोकाकाश के जितने प्रदेश कहे गए हैं, उतने ही एक-एक जीव के जीवप्रदेश कहे गए हैं। (अर्थात् असंख्येय प्रदेश है।) ।
विवेचन लोकाकाश के और प्रत्येक जीव के प्रदेश–प्रस्तुत दो सूत्रों में से प्रथम (सू. २९) सूत्र में लोकाकाश के प्रदेशों का तथा द्वितीय (सू. ३०) सूत्र में एक-एक जीव के प्रदेशों का निरूपण किया गया
है।
__ लोकाकाशप्रदेश और जीवप्रदेश की तुल्यता—लोक असंख्यातप्रदेशी है, इसलिए उसके प्रदेश असंख्यात हैं। जितने लोक के प्रदेश हैं, उतने ही एक जीव के प्रदेश हैं । जब जीव, केवली-समुद्घात करता है, तब वह आत्मप्रदेशों से सम्पूर्ण लोक को व्याप्त कर देता है, अर्थात्-लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक जीवप्रदेश अवस्थित हो जाता है।' आठ कर्मप्रकृतियां, उनके अविभागपरिच्छेद और आवेष्टित-परिवेष्टित समस्त संसारी जीव
३१. कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहा—नाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं। [३१ प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियां कितनी कही गई है ? [३१ उ.] गौतम ! कर्मप्रकृतियां आठ कही गई हैं, यथा—ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय। ३२.[१] नेरइयाणं भंते ! कई कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! अट्ठ। [३२-१ प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितनी कर्मप्रकृतियां कही गई हैं ? [३२-१ उ.] गौतम! (उनके) आठ कर्मप्रकृतियां (कही गई है।) [२] एवं सव्वजीवाणं अट्ठ कम्मपगडीओ ठावेयव्वाओ जाव वेमाणियाणं। [३२-२] इसी प्रकार वैमानिकपर्यन्त सभी जीवों के आठ कर्मप्रकृतियों की प्ररूपणा करनी चाहिए। ३३. नाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स केवतिया अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता। [३३ प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग-परिच्छेद कहे गए हैं ?
१. भगवतीसूत्र. अ. वृत्ति, पत्रांक ४२१