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________________ अष्टम शतक : उद्देशक - ९ ३९७ [११७ उ.] गौतम ! जिस प्रकार तैजसशरीरप्रयोगबंध के देशबंधकों एवं अबंधकों के अल्पबहुत्व के विषय में कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। ११८. एवं आउयवज्जं जाव अंतराइयस्स । [११८] इसी प्रकार आयुष्य को छोड़ कर अन्तरायकार्मणशरीरप्रयोगबंध तक के देशबंधकों और अबंधकों के अल्पबहुत्व के विषय में कहना चाहिए। ११९. आउयस्स पुच्छा । गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा आउयस्स कम्मस्स देसबंधगा, अबंधगा संखेज्जगुणा । [११९ प्र.] भगवन्! आयुष्यकार्मणशरीरप्रयोगबंध के देशबंधक और अबंधक जीवों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [११९ उ.] गौतम ! आयुष्यकर्म के देशबंधक जीव सबसे थोड़े हैं, उनसे अबंधक जीव संख्यातगुणे हैं ? विवेचन—कार्मणशरीरप्रयोगबंध का भेद-प्रभेदों की अपेक्षा विभिन्न दृष्टियों से निरूपण— प्रस्तुत २३ सूत्रों (सू. ९७ से ११९ तक) में कार्मणशरीर के ज्ञानावरणीयादि आठ भेदों को लेकर उस-उस कर्म के भेद की अपेक्षा प्रयोगबंध की पूर्ववत् विचारणा की गई है। कार्मणशरीरप्रयोगबंध : स्वरूप, भेद-प्रभेदादि एवं कारण — आठ प्रकार के कर्मों के पिण्ड को कार्मणशरीर कहते हैं। ज्ञानावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगबंध आदि आठों के वे ही कारण बताए हैं जो उन-उन कर्मों के कारण हैं। जैसे—ज्ञानावरणीय के ६ कारण हैं, वे ही ज्ञानावरणीयकार्मण-शरीरप्रयोगबंध के हैं। इसी प्रकार अन्यत्र भी समझ लेना चाहिए। ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मबंध के कारण — इन दोनों कर्मों के कारण समान हैं, सिर्फ ज्ञान और दर्शन शब्द का अन्तर है। ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मबंध के जो कारण बताए गए हैं, उनमें ज्ञानप्रत्यनीकता, दर्शनप्रत्यनीकता आदि का ज्ञान और ज्ञानीपुरुष तथा दर्शन और दर्शनीपुरुष की प्रत्यनीकता आदि अर्थ समझना चाहिए। ज्ञानावरणीयादि और अष्टकार्मणशरीरप्रयोगबंध देशबंध होता है, सर्वबंध नहीं- देशबंध के ही तैजसशरीरप्रयोगबंध की तरह अनादि - अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित ये दो भेद हैं। इन दोनों का अन्तर नहीं है। आयुकर्म के देशबंधक — आयुष्यकर्म के देशबंधक सबसे थोड़े हैं और अबंधक उनसे संख्यातगुण हैं, क्योंकि आयुष्यबंध का समय बहुत ही थोड़ा है और अबंध का समय उससे बहुत अधिक है । यह सूत्र अनन्तकायिक जीवों की अपेक्षा से है । वहाँ अनन्तकायिक जीव संख्यात जीवित ही हैं। उनमें आयुष्य के अबंधक, देशबंधकों से संख्यातगुण ही होते हैं। यद्यपि सिद्धजीव, जो आयुष्य के अबंधक हैं, उन्हें भी इसमें
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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