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________________ . ३८६ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-वैक्रियशरीरप्रयोगबंध के भेद-प्रभेद एवं विभिन्न पहलुओं से उससे सम्बन्धित विचारणा–प्रस्तुत ३१ सूत्रों (सू.५२ से ८२ तक) में वैक्रियशरीरप्रयोगबंध के भेद-प्रभेद, इसके कारणभूत कर्मोदयादि, इसका देशबंधत्व-सर्वबंधत्व विचार, इसके प्रयोगबंधकाल की सीमा, प्रयोगबंध का अन्तरकाल, प्रकारान्तर से प्रयोगबंधान्तर तथा इनके देश-सर्वबंधक के अल्पबहुत्व की विचारणा की गई है। वैक्रियशरीरप्रयोगबंध के नौ कारण-औदारिकशरीरबंध के सवीर्यता, सयोगता आदि आठ कारण तो पहले बतला दिये गए हैं, वे ही ८ कारण वैक्रियशरीरबंध के हैं नौवां कारण है-लब्धि। वैक्रियकरणलब्धि वायुकाय, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्यों की अपेक्षा से कारण बताई गई है। अर्थात् इन तीनों के वैक्रियशरीरप्रयोगबंध नौ कारणों से होता है, जबकि देवों और नारकों के आठ कारणों से ही वैक्रियशरीरप्रयोगबंध होता है, क्योंकि उनका वैक्रियशरीर भवप्रत्ययिक होता है। वैक्रियशरीरप्रयोगबंध के रहने की कालसीमा—वैक्रियशरीरप्रयोगबंध भी दो प्रकार से होता हैदेशबंध और सर्वबंध । वैक्रियशरीरी जीवों में उत्पन्न होता हुआ या लब्धि से वैक्रियशरीर बनाता हुआ कोई जीव प्रथम एक समय तक सर्वबंधक रहता है। इसलिए सर्वबंध जघन्य एक समय तक रहता है। किन्तु कोई औदारिक शरीर वाला जीव वैक्रियशरीर धारण करते समय सर्वबंधक होकर फिर मर कर देव या नारक हो तो प्रथम समय में वह सर्वबंध करता है, इस दृष्टि से वैक्रियशरीर के सर्वबंध का उत्कृष्टकाल दो समय का है। औदारिकशरीरी कोई जीव वैक्रियशरीर करते हुए प्रथम समय में सर्वबंधक होकर द्वितीय समय में देशबंधक होता है और तुरंत ही मरण को प्राप्त हो जाये तो देशबंध जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट एक समय कम ३३ सागरोपम का है. क्योंकि देवों और नारकों में उत्कृष्टस्थिति में उत्पद्यमान जीव प्रथम समय में सर्वबंधक होकर शेष समयों (३३ सागरोपम में एक समय कम तक) में वह देशबंधक ही रहता है। वायुकाय, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और मनुष्य के वैक्रियशरीरीय देशबंध की स्थिति जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की होती है। नैरयिकों और देवों के वैक्रियशरीरीय देशबंध की स्थिति जघन्य तीन समर कम १० हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक समय कम तेतीस सागरोपम की होती है। वैक्रियशरीरप्रयोगबंध का अन्तर-औदारिकशरीरी वायुकायिक कोई जीव वैक्रियशरीर का प्रारम्भ करे तथा प्रथम समय में सर्वबंधक होकर मृत्यु प्राप्त करे, उसके पश्चात् वायुकायिकों में उत्पन्न हो तो उसे अपर्याप्त अवस्था में वैक्रियशक्ति उत्पन्न नहीं होती। इसलिए वह अन्तर्मुहूर्त में पर्याप्त होकर वैक्रियशरीर करता है, तब सर्वबंधक होता है। इसलिए सर्वबंध का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त होता है। औदारिकशरीरी कोई वायुकायिक जीव वैक्रियशरीर करे, तो उसके प्रथम समय में वह सर्वबंधक होता है। इसके बाद देशबंधक होकर मरण को प्राप्त करे तथा औदारिकशरीरी वायुकायिक में पल्योपम का असंख्यातवां भाग काल बिता कर अवश्य वैक्रियशरीर करता है। उस समय प्रथम समय में सर्वबंधक होता है, इसलिए सर्वबंधक का उत्कृष्ट अन्तर पल्योपम का असंख्यातवां भाग होता है। रत्नप्रभापृथ्वी का दस हजार वर्ष की स्थितिवाला नैरयिक उत्पत्ति के प्रथम समय में सर्वबंधक होता है।
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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