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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र से मर कर पुनः पृथ्वीकायिक में उत्पन्न हो तो उसके सर्वबंध का अन्तर जघन्य तीन समय कम दो क्षुल्लकभव होता है। उत्कृष्टकाल की अपेक्षा अनन्तकाल-अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी-प्रमाण काल होता है। अर्थात् अनन्तकाल के समयों में उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल के समयों का अपहार किया (भाग दिया) जाए तो अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल होता है। क्षेत्र की अपेक्षा अनन्तलोक है। इसका तात्पर्य है-अनन्त काल के समयों में लोकाकाश के प्रदेशों द्वारा अपहार किया जाए, तो अनन्तलोक होते हैं। वनस्पतिकाय की कायस्थिति अनन्तकाल की है, इस अपेक्षा से सर्वबंध का उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है। यह अनन्तकाल असंख्यत पुद्गलपरावर्तन-प्रमाण है।
पुद्गलपरावर्तन आदि की व्याख्या-दस कोटाकोटि अद्धा पल्योपमों का एक सागरोपम होता है। दस कोटाकोटि सागरोपम का एक अवसर्पिणीकाल होता है और इतने ही काल का एक उत्सर्पिणीकाल होता है। ऐसी अनन्त अवसर्पिणी और उत्सपणिी का एक पुद्गलपरावर्तन होता है। असंख्यात समयों की एक आवलिका होती है। उस आवलिका के असंख्यात समयों का जो असंख्यातवां भाग है, उसमें जितने समय होते हैं, उतने पुद्गलपरावर्तन यहाँ लिये गए हैं। इनकी संख्या भी असंख्यात हो जाती है, क्योंकि असंख्यात के असंख्यात भेद हैं।
औदारिकशरीर के बन्धकों का अल्पबहुत्व—सबसे थोड़े सर्वबंधक जीव इसलिए हैं कि वे उत्पत्ति के समय ही पाए जाते हैं। उनसे अबंधक जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि विग्रहगति में और सिद्धगति में जीव अबंधक होते हैं। उनसे देशबंधक इसलिए असंख्यातगुणे हैं कि देशबंध का काल असंख्यातगुणा है।' वैक्रियशरीरप्रयोगबंध के भेद-प्रभेद एवं विभिन्न पहलुओं से तत्सम्बन्धित विचारणा
५१. वेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ?
गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-एगिंदियवेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे य, पंचिंदियवेउब्बियसरीरप्पयोगबंधेय।
[५१ प्र.] भगवन्! वैक्रियशरीर-प्रयोगबंध कितने प्रकार का कहा गया है ?
[५१ उ.] गौतम! वह दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार—(१) एकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबंध और (२) पंचेन्द्रियवैक्रियशरीर-प्रयोगबंध।
५२. जइ एगिदियवेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे किं वाउक्काइयएगिदियवेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे अवाउक्काइयएगिंदियवेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे?
एवं एएणं अभिलावेणं जहाओगाहणसंठाणे वेउव्वियसरीरभेदो तहा भाणियव्वो जाव पज्जत्तसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीयवमाणियदेवपंचिंदियवेउव्वियसरीरप्पयोगबंधेय अपज्जत्तसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव पयोगबंधे य। १. भगवतीसूत्र. अ. वृत्ति, पत्रांक ५९२