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अष्टम शतक : उद्देशक-९
३६३ त्रिविधसादिविस्त्रसाबंध का स्वरूप-सादिविस्रसाबंध के बंधनप्रत्ययिक, भाजन-प्रत्ययिक और परिणामप्रत्ययिक, ये तीन भेद कहे गए हैं। बंधन अर्थात् विवक्षित स्निग्धता आदि गुणों के निमित्त से परमाणुओं का जो बंध सम्पन्न होता है, उसे बंधनप्रत्ययिक बंध कहते हैं, भाजन का अर्थ है—आधार । उसके निमित्त से जो बंध सम्पन्न होता है, वह भाजनप्रत्ययिक है, जैसे - घड़े में रखी हुई पुरानी मदिरा गाढ़ी हो जाती है, पुराने गुड़ और पुराने चावलों का पिण्ड बंध जाता है, वह भाजनप्रत्ययिकबंध कहलाता है। परिणाम अर्थात् रूपान्तर (हो जाने) के निमित्त से जो बंध होता है, उसे परिणाम-प्रत्ययिक बंध कहते हैं।'
___ अमोघ शब्द का अर्थ—सूर्य के उदय और अस्त के समय उसकी किरणों का एक प्रकार का आकार 'अमोघ' कहलाता है।
बंधनप्रत्ययिकबंध का नियम–सामान्यतया स्निग्धता और रूक्षता से परमाणुओं का बंध होता है। किस प्रकार होता है ? इसका नियम क्या है ? यह समझ लेना आवश्यक है। एक आचार्य ने इस विषय में नियम बतलाते हुए कहा है-समान स्निग्धता या समान रूक्षता वाले स्कन्धों का बंध नहीं होता, विषम स्निग्धता या विषम रूक्षता में बंध होता है। स्निग्ध या द्विगुणादि अधिक स्निग्ध के साथ तथा रूक्ष का द्विगुणादि अधिक रूक्ष के साथ बंध होता है। स्निग्ध का रूक्ष के साथ जघन्यगुण को छोड़ कर सम या विषम बंध होता है। अर्थात् एकगुण स्निग्ध या एकगुण रूक्षरूप जघग्ध गुण को छोड़ कर शेष सम या विषम गुण वाले स्निग्ध या रूक्ष का परस्पर बंध होता है। सम स्निग्ध का सम स्निग्ध के साथ तथा सम रूक्ष का सम रूक्ष के साथ बंध नहीं होता। उदाहरणार्थ-एकगुण स्निग्ध का एकगुण स्निग्ध के साथ अथवा एकगुण स्निग्ध का दोगुण स्निग्ध के साथ बन्ध नहीं होता है। दोगुण स्निग्ध का दोगुण स्निग्ध के साथ या तीनगुण स्निग्ध के साथ बन्ध नहीं होता, किन्तु चारगुण स्निग्ध के साथ बंध होता है। जिस प्रकार स्निग्ध के सम्बन्ध में कहा, उसी प्रकार रूक्ष के विषय में समझ लेना चाहिए। एकगुण को छोड़ कर परस्थान में स्निग्ध और रूक्ष के परस्पर सम या विषम में दोनों प्रकार के बंध होते हैं। यथा—एकगुण स्निग्ध का एकगुण रूक्ष के साथ बंध नहीं होता, किन्तु द्वयादि गुणयुक्त रूक्ष के साथ बंध होता है, इसी तरह द्विगुण स्निग्ध का द्विगुण रूक्ष अथवा त्रिगुणरूक्ष के साथ बंध होता है। इस प्रकार सम और विषम दोनों प्रकार के बंध होते हैं।
(क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३९५ (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ३, पृ. १४७३ (क) वही, पत्रांक ३९५ (ख) समनिद्धयाए बन्धो न होई, समलुक्खयाए विण होइ। वेमायनिद्धलुक्खत्तणेण बन्धो उखंधाणं॥१॥ . निद्धस्स निद्रेण दुयाहिएणं लुक्खस्स लुक्खेणं दुयाहिएणं। निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बन्धो, जहन्नवज्जो विसमो समो वा॥२॥ -भगवती. अ. वृत्ति पत्र ३९५ में उद्धृत (ग) स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः। न जघन्यगुणानाम् । गुणसाम्ये सदृशानाम्। बन्धे समाधिको पारिणामिकौ च ।
-तत्त्वार्थसूत्र, अ.५