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अष्टम शतक : उद्देशक-२
२९३ उनसे मति-अज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं।
१६२. एएसि णं भंते ! आभिणिबोहियणाणपज्जवाणं जाव केवलनाणपजवाणं मइअन्नाणपज्जवाणं सुयअन्नाणपजवाणं विभंगनाणपजवाण य कतरे कतरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ?
गोयमा ! सव्वत्थोवा मणपज्जवनाणपज्जवा, विभंगनाणपज्जवा अणंतगुणा, ओहिणाणपज्जवा अणंतगुणा, सुयअन्नाणपजवा अणंतगुणा, सुयनाणपज्जवा विसेसाहिया, मइअन्नाणपजवा अणंतगुणा, आभिणिबोहियनाणपजवा विसेसाहिया, केवलनाणपज्जवा अणंतगुणा। . सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति।
॥अट्ठम सए : बितिओ उद्देसओ समत्तो॥ . [१६२ प्र.] भगवन् ! इन (पूर्वोक्त) आभिनिबोधिकज्ञान-पर्याय यावत् केवलज्ञान-पर्यायों में तथा मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान के पर्यायों में किसके पर्याय, किसके पर्यायों से यावत् (अल्प, बहुत, तुल्य अथवा) विशेषाधिक हैं ?
। [१६३ उ.] गौतम ! सबसे थोड़े मन:पर्यवज्ञान के पर्याय हैं, उनसे विभंगज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं, उनसे अवधिज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं, उनसे श्रुत-अज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं, उनसे श्रुतज्ञान के पर्याय विशेषाधिक हैं, उनसे मति-अज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं, उनसे आभिनिबोधिकज्ञान के पर्याय विशेषाधिक हैं और केवलज्ञान के पर्याय उनसे अनन्तगुणे हैं।
__'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कहकर यावत् गौतम स्वामी विचरण करने लगे।
विवेचनज्ञान और अज्ञान के पर्यायों का तथा उनके अल्पबहुत्व का प्ररूपण—प्रस्तुत ७ सूत्रों (में. १५६ से १६२ तक) में पर्यायद्वार के माध्यम से ज्ञान और अज्ञान की पर्यायों तथा उनके अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है।
पर्यायः स्वरूप, प्रकार एवं परस्पर अल्पबहुत्व—भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के विशेष भेदों को पर्याय' कहते हैं। पर्याय के दो भेद हैं-स्वपर्याय और परपर्याय । क्षयोपशम की विचित्रता मे मति-ज्ञान के अवग्रह आदि अनन्त भेद होते हैं, जो स्वपर्याय कहलाते हैं । अथवा मतिज्ञान के विषयभूत ज्ञेयों के भेद से ज्ञान के भी अनन्त भेद हो जाते हैं। इस अपेक्षा से भी मतिज्ञान के अनन्त पर्याय हैं, अथवा केवलज्ञान द्वारा मतिज्ञान के अंश (टुकड़े) किए जाएँ तो भी अनन्त अंश होते हैं, इस अपेक्षा से भी मतिज्ञान के अनन्त पर्याय हैं। मतिज्ञान के सिवाय दूसरे पदार्थों के पर्याय 'परपर्याय' कहलाते हैं । मतिज्ञान के स्वपर्यायों का बोध कराने में तथा परपर्याय से उन्हें भिन्न बतलाने में प्रतियोगी रूप से उनका उपयोग है। इसलिए वे मतिज्ञान के परपर्याय कहलाते हैं। श्रुतज्ञान के भी स्वपर्याय और परपर्याय अनन्त हैं। उनमें से श्रुतज्ञान के अक्षरश्रुत, अनक्षरश्रुत आदि भेद स्वपर्याय कहलाते हैं, जो अनन्त हैं। क्योंकि श्रुतज्ञान के क्षयोपशम की विचित्रता के कारण तथा श्रुतज्ञान के विषयभूत ज्ञेय पदार्थ अनन्त होने से श्रुतज्ञान के (श्रुतानुसारी बोध के) भेद भी अनन्त हो जाते हैं। अथवा केवलज्ञान द्वारा श्रुतज्ञान के अनन्त अंश होते हैं, वे भी उसके स्वपर्याय ही हैं, उनसे भिन्न पदार्थों के विशेष धर्म,