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________________ २८४ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र चक्षुदर्शन-अचक्षुदर्शन-अनाकारोपयोगयुक्त जीवों का कथन अनाकारोपयोगयुक्त जीवों के समान जानना चाहिए। अर्थात् उनमें चार ज्ञान अथवा तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। अवधिदर्शन-अनाकारोपयोग युक्त जीव ज्ञानी और अज्ञानी दो तरह के होते हैं, क्योंकि दर्शन का विषय समान्य है। समान्य अभिन्नरूप होने से दर्शन में ज्ञानी और अज्ञानी भेद नहीं होता। अत: इसमें कई तीन या चार ज्ञान वाले होते हैं, अथवा नियमतः तीन अज्ञान वाले होते हैं। ११. योगद्वार—सयोगी जीव अथवा मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीवों का कथन सकायिक जीवों के समान समझना चाहिए। चेकि केवली भगवान में भी मनोयोगादि होते हैं, इसलिए इनमें (सम्यग्दृष्टि आदि में) पांच ज्ञान भजना से होते हैं तथा मिथ्यादृष्टि सयोगी या पृथक्-पृथक् योग वाले जीवों में तीन अज्ञान भजना से होते हैं। अयोगी (सिद्ध भगवान् और चतुर्दशगुणस्थानकवर्ती केवली) जीवों में एकमात्र एक केवलज्ञान होता है। १२. लेश्याद्वार-लेश्यायुक्त (सलेश्य) जीवों में ज्ञान-अज्ञान की प्ररूपणा सकषायी जीवों के समान है, उनमें पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से समझने चाहिए। चूंकि केवलीभगवान् भी शुक्ललेश्या होने से सलेश्य होते हैं, इसलिए उनमें पंचम-केवलज्ञान होता है। कृष्ण, नील, कापोत, तेज और पद्मलेश्या वाले जीवों में ज्ञान, अज्ञान की प्ररूपणा सेन्द्रिय जीवों के समान है, अर्थात्-उनमें चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। शुक्ललेश्या वाले जीवों का कथन सलेश्य जीवों की तरह करना चाहिए। अलेश्य जीव सिद्ध होते हैं, उनमें एकमात्र केवलज्ञान ही होता है। १३. कषायद्वार-सकषायी या क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीवों में ज्ञान-अज्ञानप्ररूपणा सेन्द्रिय के सदृश है, अर्थात्—उनमें केवलज्ञान के सिवाय चार ज्ञान एवं तीन अज्ञान भजना से होते हैं। अकषायी, छद्मस्थ-वीतराग और केवली दोनों होते हैं। छद्मस्थ वीतराग (११-१२ गुणस्थानवर्ती) में प्रथम के चार ज्ञान भजना से पाए जाते हैं, और केवली (१३-१४ गुणस्थानवर्ती) में एकमात्र केवलज्ञान ही पाया जाता है। इसलिए अकषायी जीवों में पांच ज्ञान भजना से बताए गए हैं। १४. वेदद्वार-सवेदक आठवें गुणस्थान तक के जीव होते हैं। उनका कथन सेन्द्रिय के समान है, अर्थात्-उनमें केवलज्ञान को छोड़कर शेष चार ज्ञान अथवा तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। अवेदक (वेदरहित) जीवों में ज्ञान ही होता है, अज्ञान नहीं। नौवें अनिवृत्तिबादर नामक गणुस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक के जीव अवेदक होते हैं। उनमें से बारहवें गुणस्थान तक के जीव छद्मस्थ होते हैं, अत: उनमें चार ज्ञान (केवलज्ञान के सिवाय) भजना से पाए जाते हैं, तथा तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानवी जीव केवली होते हैं, इसलिए उनके सिर्फ एक पंचम ज्ञान-केवलज्ञान होता है, इसी दृष्टि से कहा गया है कि 'अवेदक में पांच ज्ञान पाए जाते हैं।' १५. आहारकद्वार—यद्यपि आहारक जीव में ज्ञान-अज्ञान का कथन कषायी जीवों के समान (चार ज्ञान एवं तीन अज्ञान भजना से) बताया गया है, तथापि केवलज्ञानी भी आहारक होते हैं, इसलिए आहारक जीवों में भजना से पांच ज्ञान अथवा तीन अज्ञान कहने चाहिए। मनःपर्यवज्ञान आहारक जीवों को ही होता है; इसलिए अनाहारक जीवों में मनःपर्यवज्ञान के सिवाय चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं।
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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