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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
६८. वाणमंतरा जहा नेरइया (सु. ६४)
[६८] अपर्याप्त वाणव्यन्तर जीवों का कथन नैरयिक जीवों की तरह (सू. ६४ के अनुसार) समझना चाहिए।
६९. अपजत्तगा जोतिसिय-वेमाणिया णं० ? तिण्णि नाणा, तिन्नि अण्णाणा नियमा। [६९ प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त ज्योतिष्क और वैमानिक ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [६९ उ.] गौतम ! उनमें तीन ज्ञान या तीन अज्ञान नियमतः होते हैं। ७०. नोपजत्तगनोअपजत्तगा णं भंते ! जीवा किं नाणी० ? जहा सिद्धा (सु. ३८) ।५। [७० प्र.] भगवन् ! नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [७० उ.] गौतम ! इनका कथन सिद्ध जीवों (सू. ३८) के समान जानना चाहिए।
(पंचम द्वार) ७१. निरयभवत्था णं भंते ! जीवा किं नाणी, अण्णाणी ? जहा निरयगतिया (सु. ३९)। [७१ प्र.] भगवन् ! निरयभवस्थ (नारकभव में रहे हुए) जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [७१ उ.] गौतम ! इनके विषय में निरयगतिक जीवों के समान (सू. ३९ के अनुसार) कहना चाहिए। ७२. तिरियभवत्था णं भंते ! जीवा किं नाणी, अण्णाणी ? तिण्णि नाणा, तिण्णि अण्णाणा भयणाए। [७२ प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चभवस्थ जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [७२ उ.] गौतम ! उनमें तीन ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं। ७३. मणुस्सभवत्था णं०? जहा सकाइया (सु. ४९)। [७३ प्र.] भगवन् ! मनुष्यभवस्थ जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [७३ उ.] गौतम ! इनका कथन सकायिक जीवों की तरह (सू. ४१ के अनुसार) करना चाहिए। ७४. देवभवत्था णं भंते ! ०?