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अष्टम शतक : उद्देशक-२
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३८. सिद्धा णं भंते ! पुच्छा। गोयमा ! णाणी, नो अण्णाणी। नियमा एगनाणी-केवलनाणी। [३८ प्र.] भगवन् ! सिद्ध भगवान् ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [३८ उ.] गौतम ! सिद्ध भगवान् ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं हैं। नियमत: एक-केवलज्ञान वाले हैं।
विवेचन औधिक जीवों, चौवीस दण्डकवर्ती जीवों एवं सिद्धों में ज्ञान और अज्ञान की प्ररूपणा–प्रस्तुत दस सूत्रों (२९ से ३८ तक) में औधिक जीवों, नैरयिक से लेकर वैमानिक पर्यन्त चौवीस दण्डकवर्ती जीवों और सिद्धों में पाये जाने वाले ज्ञान और अज्ञान की प्ररूपणा की गई है।
नैरयिकों में तीन ज्ञान नियमतः, तीन अज्ञान भजनातः-सम्यग्दृष्टि नैरयिकों में भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है, इसलिए वे नियमत: तीन ज्ञान वाले होते हैं। किन्तु जो अज्ञानी होते हैं, उनमें कितने ही दो अज्ञान वाले होते हैं, जब कोई असंज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च नरक में उत्पन्न होता है, तब उसके अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता, इस अपेक्षा से नारकों में दो अज्ञान कहे गए हैं। जो मिथ्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय नरक में उत्पन्न होता है, तो उसको अपर्याप्त अवस्था में भी विभंगज्ञान होता है। अत: इस अपेक्षा से नारकों में तीन अज्ञान कहे गए
तीन विकलेन्द्रिय जीवों में दो ज्ञान द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में जिस औपशमिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य ने या तिर्यञ्च ने पहले आयुष्य बांध लिया है, वह उपशम-सम्यक्त्व का वमन करता हुआ उनमें (द्वी-त्रि-चतुरिन्द्रिय जीवों में) उत्पन्न होता है। उस जीव को अपर्याप्त दशा में सास्वादनसम्यग्दर्शन होता हैं, जो जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवलिका तक रहता है; तब तक सम्यग्दर्शन होने के कारण वह ज्ञानी रहता है, उस अपेक्षा से विकलेन्द्रियों में दो ज्ञान बतलाए हैं। इसके पश्चात् तो वह मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाने से अज्ञानी हो जाता है। गति आदि आठ द्वारों की अपेक्षा ज्ञानी-अज्ञानी-प्ररूपणा
३९. निरयगतिया णं भंते ! जीवा किं नाणी, अण्णाणी ? गोयमा ! नाणी वि, अण्णाणी वि। तिणि नाणाई नियमा, तिण्णि अन्नाणाई भयणाए। [३९ प्र.] भगवन् ! निरयगतिक (नरकगति में जाते हुए) जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ?
[३९ उ.] गौतम ! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं, वे नियमत: तीन ज्ञान वाले हैं और जो अज्ञानी हैं, वे भजना से तीन अज्ञान वाले हैं। '
४०. तिरियगतिया णं भंते ! जीवा किं नाणी, अण्णाणी ?
गोयमा ! दो नाणा, दो अन्नाणा नियमा। १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३४५