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________________ २५४ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अर्थावग्रह-व्यंजनावग्रह का स्वरूप-अर्थावग्रह पदार्थ के अव्यक्त ज्ञान को कहते हैं। इसमें पदार्थ के वर्ण गन्ध आदि का अस्पष्ट ज्ञान होता है। इसकी स्थिति एक समय की है। अर्थावग्रह से पहले उपकरणेन्द्रिय द्वारा इन्द्रियसम्बद्ध शब्दादि विषयों का अत्यन्त अव्यक्त ज्ञान व्यञ्जनावग्रह है। इसकी जघन्य स्थिति आवलिका के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट दो से नौ श्वासोच्छ्वास की है। व्यञ्जनावग्रह 'दर्शन' के बाद चक्षु और मन को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों से होता है। तत्पश्चात् इन्द्रियों का पदार्थ के साथ सम्बंध होने पर यह कुछ है', ऐसा अस्पष्ट ज्ञान होता है, वही अर्थावग्रह है। अवग्रह आदि की स्थिति और एकार्थक नाम–अवग्रह की एक समय की, ईहा की अन्तर्मुहूर्त की, अवाय की अन्तर्मुहूर्त की और धारणा की स्थिति संख्यातवर्षीय आयु वालों की अपेक्षा संख्यात काल की और असंख्यातवर्षीय आयु वालों की अपेक्षा असंख्यातकाल की है। अवग्रह आदि चारों के प्रत्येक के पाँच-पाँच एकार्थक नाम नन्दीसूत्र में दिये गये हैं। चारों के कुल मिलाकर बीस भेद हैं। श्रुतादि ज्ञानों के भेद-नन्दीसूत्र के अनुसार श्रुतज्ञान के अक्षरश्रुत, अनक्षरश्रुत आदि १४ भेद हैं, अवधिज्ञान के भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय, ये दो भेद हैं, मन:पर्यवज्ञान के ऋजुमति और विपुलमति, ये दो भेद हैं। केवलज्ञान एक ही है, उसका कोई भेद नहीं है। मति-अज्ञान आदि का स्वरूप और भेद-मिथ्यादृष्टि के मतिज्ञान को मति-अज्ञान कहते हैं, अर्थात्—सामान्य मति सम्यग्दृष्टि के लिए मतिज्ञान है और मिथ्यादृष्टि के लिए मति-अज्ञान है। इसी तरह अविशेषित श्रुत, सम्यग्दृष्टि के लिए श्रुतज्ञान है और मिथ्यादृष्टि के लिए श्रुत-अज्ञान है । मिथ्या अवधिज्ञानं को विभंगज्ञान कहते हैं। ज्ञान में अवग्रह आदि के जो एकार्थक नाम कहे गए हैं, उन्हें यहाँ अज्ञान के प्रकरण में नहीं कहना चाहिए। विभंगज्ञान का शब्दशः अर्थ इस प्रकार भी होता है- जिसमें विरुद्ध भंग-वस्तुविकल्प उठते हों, अथवा अवधिज्ञान से विरूप-विपरीत-मिथ्या-भंग (विकल्प) वाला ज्ञान। ग्रामसंस्थित आदि का स्वरूप ग्राम का अवलम्बन होने से वह विभंगज्ञान, ग्रामाकार (ग्रामसंस्थित) कहलाता है, इसी प्रकार अन्यत्र भी ऊहापोह कर लेना चाहिए। औधिक, चौवीस दण्डकवर्ती तथा सिद्ध जीवों में ज्ञान-अज्ञान-प्ररूपणा २९. जीवा णं भंते ! किं नाणी, अन्नाणी ? गोयमा ! जीवा नाणी वि, अन्नाणी वि।जे नाणी ते अत्थेगतिया दुन्नाणी, अत्थेगतिया तिन्नाणी, अत्थेगतिया चउनाणी, अत्थेगतिया एगनाणी। जे दुन्नाणी ते आभिणिबोहियनाणी य सुयनाणी य। जे तिन्नाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी ओहिनाणी, अहवा आभिणिबोहियणाणी सुयणाणी मणपजवनाणी। जे चउणाणी ते आभिणिबोहियणाणी सुयणाणी ओहिणाणी मणपजवणाणी। जे एगनाणी ते नियमा केवलनाणी। जे अण्णाणी ते अत्थेगतिया दुअण्णाणी, अत्थेगतिया तिअण्णाणी। जे दुअण्णाणी ते मइअण्णाणी य सुय अण्णाणी य।जे तिअण्णाणी ते मतिअण्णाणी
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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