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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में विष होता है, वे 'आशीविष' कहलाते हैं। आशीविष प्राणी दो प्रकार के होते हैं-जाति आशीविष और कर्म—आशीविष । साँप, बिच्छू, मेंढक आदि जो प्राणी जन्म से ही आशीविष होते हैं, वे जाति-आशीविष कहलाते हैं और जो कर्म यानी शाप आदि क्रिया द्वारा प्राणियों का विनाश करते हैं, उन्हें कर्म-आशीविष कहते हैं। पर्याप्तक तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय और मनुष्य को तपश्चर्या आदि से अथवा अन्य किसीगण के कारण आशीविषलब्धि प्राप्त हो जाती है। ये जीव आशीविष-लब्धि के स्वभाव से शाप दे कर दूसरे का नाश करने की शक्ति पा लेते हैं। आशीविषलब्धि वाले जीव आठवें देवलोक से आगे उत्पन्न नहीं हो सकते। जिन्होंने पूर्वभव में आशीविषलब्धि का अनुभव किया था, अतः पूर्वानुभूतभाव के कारण वे कर्म-आशीविष होते हैं। अपर्याप्त अवस्था में ही वे आशीविषयुक्त होते हैं।
जाति-आशीविषयुक्त प्राणियों का विषसामर्थ्य-जाति-आशीविष वाले प्राणियों के विष का जो सामर्थ्य बताया है, वह विषयमात्र है। उसका आशय यह है—जैसे किसी मनुष्य ने अपना शरीर अर्द्धभरतप्रमाण बनाया हो, उसके पैर में यदि बिच्छू डंक मारे तो उसके मस्तक तक उसका विष चढ़ जाता है। इसी प्रकार भरतप्रमाण, जम्बूद्वीपप्रमाण और ढाईद्वीपप्रमाण का अर्थ समझना चाहिए। छद्मस्थ द्वारा सर्वभावेन ज्ञान के अविषय और केवली द्वारा सर्वभावेन ज्ञान के विषयभूत दस स्थान
२०. दस ठाणइं छउमत्थे सव्वभावेणं न जाणति न पासति, तं जहा–धम्मत्थिकायं १, अधम्मत्थिकायं २, आगासत्थिकायं ३, जीवं असरीरपडिबद्धं ४, परमाणुपोग्गलं ५, सदं ६, गंधं ७, वातं ८, अयं जिणे भविस्सति वा ण वा भविस्सइ ९, अयं सव्वदुक्खाण अंतं करेस्सति वा न वा करेस्सइ १०।
[२०] छद्मस्थ पुरुष इन दस स्थानों (बातों) को सर्वभाव से नहीं जानता और नहीं देखता। वे इस प्रकार हैं-(१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) शरीर से रहित (मुक्त) जीव, (५) परमाणुपुद्गल, (६) शब्द, (७) गन्ध, (८) वायु, (९) यह जीव जिन होगा या नहीं ? तथा (१०) यह जीव सभी दुःखों का अन्त करेगा या नहीं?
२१. एयाणि चेव उप्पन्ननाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं जाणति पासति, तं जहा-धम्मत्थिकायं १ जाव करेस्सति वा न वा करेस्सति १०।
[२१] इन्हीं दस स्थानों (बातों) को उत्पन्न (केवल) ज्ञान-दर्शन के धारक अरिहन्त-जिन-केवली सर्वभाव से जानते और देखते हैं। यथा-धर्मास्तिकाय यावत्-यह जीव समस्त दु:खों का अन्त करेगा या नहीं?
विवेचन—सर्वभाव ( पूर्णरूप) से छद्मस्थ के ज्ञान के अविषय और केवली के ज्ञान के विषयरूप दस स्थान—प्रस्तुत दो सूत्रों में से प्रथम सूत्र (सू. २०) में उन दस स्थानों (पदार्थों) के नाम गिनाए हैं, जिन्हें छद्मस्थ सर्वभावेन जान और देख नहीं सकता, द्वितीय सूत्र में उन्हीं दस का उल्लेख है, जिन्हें १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३४१-३४२